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शिव के विराट दर्शन कराती एक कविता : महाकाल

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जब पहली बार प्रकाश फूटा,

और समय ने चलना सीखा

उससे पूर्व जो था,

और उसके पश्चात भी जो रहेगा,

वही आप हो

महाकाल।

मैंने समय को थमते देखा,

क्षण को विलीन होते देखा

जब सब कुछ मौन हुआ,

तब भी जो अनुगूंजता रहा,

वह आप थे, महाकाल।

न आदि, न अंत,

न दिशा, न सीमा

शिव शून्य में भी हैं,

शिव सम्पूर्ण में भी।

जब ब्रह्मांड झपकता है,

जब तारे बुझते हैं,

जब सृष्टियां जन्मती और मिटती हैं,

तब भी एक निरंतरता बनी रहती है

वह शिव ही है।

आप साकार भी हो,

अर्द्धनारीश्वर के आलोक में,

और निराकार भी,

योगियों की समाधि में

जहां श्वास रुक जाती है,

और चेतना विलीन हो जाती है,

वहां भी आप हो।

आप शिव हो,

पर केवल संहारक नहीं

शिव सृजन के गर्भ में छिपे वह स्पंदन हैं,

जिससे आत्मा आकार पाती है,

जिससे प्रलय भी पुनर्जन्म का द्वार बनती है।

शिव पशुपतिनाथ हैं

पर केवल पशु के नहीं,

मनुष्य की आदिम वृत्तियों के भी स्वामी।

शिव ने रुद्र बनकर तपाया,

शिव ने नटराज बनकर चेतना को नचाया,

शिव ने अघोर बनकर अज्ञान को हराया।

शिव काल के पार हैं,

इसलिए काल स्वयं महाकाल से कांपता है।

शिव अंत नहीं,

शिव वह चक्र हो जो निरंतर चलता है

बिना किसी उत्पत्ति और विनाश के भय के।

शिव शक्ति के धारक हैं,

और शक्ति स्वयं शिव से उत्पन्न

पार्वती की आंखों में जो करुणा है,

वह आपकी ही प्रतिछाया है।

शिव और शक्ति में भेद कहाँ?

केवल दृष्टि की भूल है

आप दोनों हो, एक साथ।

न काल के अधीन,

न सृष्टि के नियमों में बंधे

शिव वह है

जो स्वयं नियम हैं,

और स्वयं ही अतिक्रमण भी।

जब सृजन होता है,

तब भी शिव ही हैं

बीज में छिपे वृक्ष की तरह,

और जब प्रलय आता है

तब भी शिव हैं,

जल की अंतिम बूँद में समाए आकाश की तरह।

शिव तांडव में विनाश नहीं,

बल्कि नव निर्माण का आवाहन है।

शिव का एक पग पृथ्वी को हिला देता है,

और दूसरा

सम्भव का द्वार खोल देता है।

संसार

एक माया का जाल है,

क्षणिक,

क्षणभंगुर।

यह जो है,

वह नहीं रहता,

और जो नहीं है,

वही शाश्वत है।

शिव उस शाश्वत के रक्षक हैं।

उनकी आंखों में

त्रिकाल झलकता है,

और शिव की जटाओं में

गंगा के साथ सृष्टि बहती है।

औघड़ हो आप

अर्थात मुक्त।

संस्कारों से,

वर्णों से,

मर्यादाओं से भी परे।

शिव तन पर भस्म

अनित्य का प्रतीक है।

शिव को श्रृंगार नहीं,

त्याग शोभा देता है।

और फिर भी,

आपके अंतस में

लहराता है दया का वह सागर

जिसमें समर्पित आत्माएं डूब कर

मुक्त होती हैं।

शिव क्रोधित होते हैं

जब कोई अज्ञानी विनाश बोता है,

शिव थरथराते हैं

जब अधर्म उग्र होता है।

आपकी करुणा,

एक पिता की तरह है

जो जानता है दंड और दुलार

दोनों की आवश्यकता।

शिव नृत्य करते हैं श्मशान में,

क्योंकि वहां से नया जीवन आरंभ होता है।

शिव बैठते हैं तपस्वियों के चित्त में,

जहां मौन बोलता है

और ध्यान चलता है

शब्दों के बिना।

शिव के भीतर जो सन्नाटा है,

वह डराता नहीं

वह भीतर उतरने का आमंत्रण है।

शिव तांडव में जो आक्रोश है,

वह विनाश नहीं,

वह व्यवस्था का संधान है।

शिव मंदिरों में नहीं बंद,

शिव केवल श्रृंगार की मूर्ति नहीं

शिव उस साधक के नेत्रों में हो,

जो अपने भीतर उन्हें खोजता है,

जो निडर है, निर्विकार है,

जो स्वयं को त्याग कर

शिव स्वरूप को अपनाता है।

महाकाल!

आप कोई कल्पना नहीं,

आप चेतना के अंतिम सत्य हो

जहां सब कुछ विलीन होता है,

और जहाँ से सब कुछ फिर जन्म लेता है।

महाकाल!

आप केवल शिव नहीं,

आप संपूर्ण सत्य हो

जो जन्म के पहले भी था,

जो मृत्यु के बाद भी रहेगा।

(वेबदुनिया पर दिए किसी भी कंटेट के प्रकाशन के लिए लेखक/वेबदुनिया की अनुमति/स्वीकृति आवश्यक है, इसके बिना रचनाओं/लेखों का उपयोग वर्जित है...)

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