मंच दुगना कर रहे साहित्य के संताप को ।
गीत छंदों की दुखन तक ले चलूंगा आपको ।
चुटकुलों का जोर है बस जोकरों का राज है ,
भूल बैठे हैं सभी काका सरीखे जाप को ।
शब्द की गति मुक्त है चाहे कहीं भी मोड़ ले ,
रोक पाया क्या जमाना शब्द के पद चाप को ।
आठ ही अरकान थे केवल अठारह बहर थी ,
आज अस्सी हो गयीं रोका नहीं परिमाप को ।
शब्द ब्रह्मा की धरोहर हक सभी का मानिए ,
बर्फ कहते मत फिरो ताजी धधकती भाप को ।
आदमी की आयु को भी मान तो कुछ दीजिये ,
मत कभी कम आंकिये रिश्ते में अपने बाप को ।
होंसला अफजा कराओ हर उभरती कलम का ,
पीढ़ियाँ दिल में रखें तब आपकी इस छाप को ।
नाम "हलधर"का रहा है बागियों की पंक्ति में ,
माप कर देखो न आगे लेखिनी के ताप को ।
(मंचों के गिरते स्तर को रेखांकित करती एक ग़ज़ल )
- जसवीर सिंह हलधर , देहरादून
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