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भारत की सबसे प्राचीन पर्वतमाला अरावली! जहां ऋषियों ने की तपस्या, वायरल फुटेज में देखे पौराणिक कथाओं और इतिहास से जुड़ी रोचक बातें

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भारत की भूगोलिक और सांस्कृतिक धरोहरों में अरावली पर्वतमाला का स्थान अत्यंत विशेष और गौरवपूर्ण है। यह केवल एक भौगोलिक श्रृंखला नहीं, बल्कि भारतीय सभ्यता, संस्कृति और पौराणिक इतिहास का एक अहम हिस्सा भी है। अरावली पर्वत श्रृंखला भारत की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में से एक मानी जाती है, जिसकी उत्पत्ति अरबों वर्ष पूर्व मानी जाती है। इसकी मौजूदगी न केवल राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली के पर्यावरण को संजीवनी देती है, बल्कि इसके साथ जुड़ी धार्मिक और पौराणिक कथाएं भी इस पर्वत को आध्यात्मिक महत्त्व प्रदान करती हैं।


भूगोल से पौराणिकता तक
अरावली पर्वत श्रृंखला की कुल लंबाई लगभग 692 किलोमीटर है, जो गुजरात के पिंडवाड़ा से शुरू होकर राजस्थान के माउंट आबू होते हुए हरियाणा के महेन्द्रगढ़ और दिल्ली तक फैली हुई है। यह पर्वत श्रृंखला विंध्य और सतपुड़ा पर्वतमालाओं से अलग है, क्योंकि यह भारत की सबसे पुरानी जीवाश्म पर्वतमालाओं में से एक है। वैज्ञानिक इसे 3.2 अरब वर्ष पुराना मानते हैं, जो हिमालय से भी कहीं अधिक प्राचीन है।लेकिन अरावली का महत्त्व केवल इसके भूगोल तक सीमित नहीं है। यह पर्वतमाला वैदिक युग से जुड़ी कथाओं और पुराणों में कई बार उल्लेखित है। पुराणों के अनुसार, यही वह स्थल है जहां अनेक ऋषियों ने तपस्या की, अनेक युद्ध हुए और देवताओं के अस्त्र-शस्त्र गढ़े गए। यह क्षेत्र देवी-देवताओं की तपस्थली रहा है।

माउंट आबू: तपस्वियों की भूमि
अरावली पर्वतमाला में स्थित माउंट आबू न केवल इस श्रृंखला की सबसे ऊंची चोटी है (1722 मीटर), बल्कि धार्मिक दृष्टिकोण से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण स्थल है। यह स्थान ऋषि वशिष्ठ की तपोभूमि माना जाता है। पुराणों के अनुसार, जब पृथ्वी पर अधर्म बढ़ गया था, तब वशिष्ठ ऋषि ने इसी माउंट आबू पर आकर तपस्या की और देवताओं को प्रसन्न किया। कहा जाता है कि यहीं से अग्निकुंड प्रकट हुआ और चार राजपूत वंशों – परमार, चौहान, सोलंकी और प्रतिहार – की उत्पत्ति हुई। इसलिए राजपूत समाज में इस स्थल का अत्यधिक धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व है।

अरावली में स्थित धार्मिक स्थल
अरावली पर्वतमाला में अनेक धार्मिक स्थल मौजूद हैं जो इसकी पौराणिकता को प्रमाणित करते हैं। दिल्ली और हरियाणा के पास स्थित अंशेश्वर महादेव, मंगलेश्वर महादेव जैसे शिव मंदिर, अलवर में स्थित पांडुपोल हनुमान मंदिर और नीमराणा का प्राचीन शिव धाम, सभी इस बात का प्रमाण हैं कि यह पर्वतमाला हजारों वर्षों से धार्मिक और आस्था का केंद्र रही है।इतना ही नहीं, अरावली की गोद में स्थित अमरनाथ की तरह दिखने वाली गुफाएं, प्राकृतिक जल स्रोत, ऋषियों की गुफाएं, और कई ऐतिहासिक स्थल आज भी इस क्षेत्र की पौराणिकता को जीवित रखते हैं।

पर्यावरणीय और सांस्कृतिक महत्त्व
अरावली पर्वत श्रृंखला केवल धार्मिक और पौराणिक दृष्टि से ही नहीं, बल्कि पर्यावरण की दृष्टि से भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। यह दिल्ली-एनसीआर सहित राजस्थान के कई हिस्सों में जलवायु को संतुलित करती है। अरावली की हरियाली वर्षा को आकर्षित करती है, भूजल को रिचार्ज करती है और मरुस्थल की गति को रोकती है। यदि यह पर्वत श्रृंखला न होती, तो शायद थार का रेगिस्तान दिल्ली तक फैल चुका होता।इस पर्वत श्रृंखला में अनेक प्राचीन जल स्रोत, बावड़ियाँ, प्राकृतिक झीलें और जैव विविधता पाई जाती है। अरावली वनों में आज भी तेंदुआ, लोमड़ी, नीलगाय और कई अन्य वन्यजीवों का निवास है। इसलिए यह जैविक दृष्टि से भी एक संपन्न क्षेत्र है।

खतरे में है अरावली की विरासत
दुर्भाग्यवश आज यह ऐतिहासिक और पौराणिक पर्वत श्रृंखला अवैध खनन, अतिक्रमण और नगरीकरण के कारण खतरे में है। हरियाणा और राजस्थान के कई क्षेत्रों में गैरकानूनी खनन और पेड़ों की कटाई ने इसकी हरियाली को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। सुप्रीम कोर्ट और नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (NGT) ने समय-समय पर अरावली की रक्षा के लिए निर्देश दिए हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर स्थिति बेहद चिंताजनक बनी हुई है।

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