गुरुनानक देव ने बार-बार कहा “सुनिए,सुनिए,सुनिए” — क्योंकि कोई सच में सुन ही नहीं रहा था। बाहर के कानों से सुनना असली सुनना नहीं है। जो कानों से सुना जाता है, वह माया है, संसार है। गुरु नानक देवजी जिस शिखर से बोल रहे थे, वह आत्मा का शिखर था — अंतर की चेतना का स्तर था। लेकिन लोग उस तल से नहीं सुन पा रहे थे। इसी पीड़ा से वे बार-बार बोले— “सुनिए, सुनिए, सुनिए”।
छत्तीस वर्षों तक उन्होंने बहुत कुछ कहा। काली बेन नदी से सचखंड का दर्शन करके जब वे बाहर आए, तो उन्होंने सच्चाई का संदेश पूरी दुनिया को दिया। उनहत्तर वर्ष की आयु तक वे बोलते रहे। लोग बाहर से तो सुनते थे, पर भीतर कोई उस अनहद नाद से नहीं जुड़ पा रहा था। जो मुख से बोला जा रहा था और कानों से सुना जा रहा था, वह नाद था, पर अनहद नहीं।
उन्होंने प्रेम के जो गीत दिए, संसार ने उन्हें गाया, आज भी गा रहा है। जपुजी साहिब के पाठ हो रहे हैं, जगह-जगह नाद गूंज रहा है, पर अनहद नहीं आ रहा। अनहद यानी आत्मा के शिखर से सुनना — जहाँ चेतना स्थिर हो जाती है।
इसीलिए गुरु साहिब को कहना पड़ा “सुनिए, सुनिए, सुनिए” — क्योंकि कोई सही अर्थ में सुन ही नहीं रहा था। अगर सबने सुन लिया होता तो आज नामों की लंबी सूची होती। पर उनके साथ जुड़े हुए नाम गिनने जाएँ तो गुरु अंगद और मरदाना ही प्रमुख हैं। अगर सच में सुन लिया होता, तो सब मनै बन गए होते — यानी मन के पार।
“मन जीता, जग जीता” — जिसने मन जीत लिया, उसने जग जीत लिया। तब न शोहरत, न स्त्री-पुरुष आकर्षण, न अपमान-सम्मान — कुछ भी विचलित नहीं कर सकता। लेकिन हमारा मन अब भी डोलता है। पैसा देखकर डोलता है, पद-सम्मान देखकर डोलता है, अपमान या नुकसान से व्याकुल हो जाता है, देह देखकर वासना जागती है।
तो क्या हम सच में सुन रहे हैं? आज जब हम गुरु नानक देव जी का उत्सव मना रहे हैं, हमें भीतर झांकना चाहिए। बाहर उत्सव हो रहा है, पर अंदर शोक होना चाहिए — कि अभी भी हमारा मन स्थिर नहीं हुआ। एक और साल गुजर गया, पर हम मनै नहीं बन पाए।
जपुजी साहिब के एक-एक शब्द, मूल मंत्र का हर शब्द, अनमोल रत्न है। हर पौड़ी एक खजाना है। तभी तो कहा गया है — “मति विच रतन जवाहर माणिक जे इक गुरु की सिख सुनी।” (यदि एक भी गुरु की सीख सच में सुन ली जाए तो मन में रत्न, जवाहर और माणिक भर जाते हैं।)
सब कुछ हुकम में है, हुकम के बाहर कुछ नहीं। एक सीख भी समझ आ जाए तो बहुत है। पर हम पढ़ते तो हैं, पर सुनते नहीं। गुरु नानक देवजी को गए पाँच सौ से अधिक साल हो गए, पर हम अब भी जन्म-मरण के चक्र में घूम रहे हैं — क्योंकि हमने सुनना नहीं सीखा।
पढ़ना, सुनना नहीं है। चमड़े के कानों से सुनना पर्याप्त नहीं, अंतरात्मा से सुनना है। आत्मा वही चेतना है जो सचखंड से जुड़ी है। वहाँ से वचन आते हैं, पर हम उन्हें इस नश्वर शरीर से सुनने की कोशिश करते हैं।
मार्ग की शुरुआत अच्छी है — पाठ, जप, कीर्तन — पर अंत में अजप्पा होना चाहिए। मुख से जपना नहीं, बल्कि अंतरात्मा में स्थिर होना ही सच्चा जप है। जब मन पूरी तरह स्थिर हो जाता है, वही ब्रह्म की स्थिति है।
इसलिए “सुनिए” केवल शब्द सुनने की पुकार नहीं, बल्कि आत्मा को जागृत करने का निमंत्रण है। गुरु नानक देव जी का संदेश केवल उनके समय के लिए नहीं, हर युग के लिए है। उनके जन्म दिवस का सच्चा उत्सव तभी है जब हम भीतर से सुनना शुरू करें, मन को स्थिर करें और माया से ऊपर उठें — क्योंकि स्थिर मन ही ब्रह्म है।
छत्तीस वर्षों तक उन्होंने बहुत कुछ कहा। काली बेन नदी से सचखंड का दर्शन करके जब वे बाहर आए, तो उन्होंने सच्चाई का संदेश पूरी दुनिया को दिया। उनहत्तर वर्ष की आयु तक वे बोलते रहे। लोग बाहर से तो सुनते थे, पर भीतर कोई उस अनहद नाद से नहीं जुड़ पा रहा था। जो मुख से बोला जा रहा था और कानों से सुना जा रहा था, वह नाद था, पर अनहद नहीं।
उन्होंने प्रेम के जो गीत दिए, संसार ने उन्हें गाया, आज भी गा रहा है। जपुजी साहिब के पाठ हो रहे हैं, जगह-जगह नाद गूंज रहा है, पर अनहद नहीं आ रहा। अनहद यानी आत्मा के शिखर से सुनना — जहाँ चेतना स्थिर हो जाती है।
इसीलिए गुरु साहिब को कहना पड़ा “सुनिए, सुनिए, सुनिए” — क्योंकि कोई सही अर्थ में सुन ही नहीं रहा था। अगर सबने सुन लिया होता तो आज नामों की लंबी सूची होती। पर उनके साथ जुड़े हुए नाम गिनने जाएँ तो गुरु अंगद और मरदाना ही प्रमुख हैं। अगर सच में सुन लिया होता, तो सब मनै बन गए होते — यानी मन के पार।
“मन जीता, जग जीता” — जिसने मन जीत लिया, उसने जग जीत लिया। तब न शोहरत, न स्त्री-पुरुष आकर्षण, न अपमान-सम्मान — कुछ भी विचलित नहीं कर सकता। लेकिन हमारा मन अब भी डोलता है। पैसा देखकर डोलता है, पद-सम्मान देखकर डोलता है, अपमान या नुकसान से व्याकुल हो जाता है, देह देखकर वासना जागती है।
तो क्या हम सच में सुन रहे हैं? आज जब हम गुरु नानक देव जी का उत्सव मना रहे हैं, हमें भीतर झांकना चाहिए। बाहर उत्सव हो रहा है, पर अंदर शोक होना चाहिए — कि अभी भी हमारा मन स्थिर नहीं हुआ। एक और साल गुजर गया, पर हम मनै नहीं बन पाए।
जपुजी साहिब के एक-एक शब्द, मूल मंत्र का हर शब्द, अनमोल रत्न है। हर पौड़ी एक खजाना है। तभी तो कहा गया है — “मति विच रतन जवाहर माणिक जे इक गुरु की सिख सुनी।” (यदि एक भी गुरु की सीख सच में सुन ली जाए तो मन में रत्न, जवाहर और माणिक भर जाते हैं।)
सब कुछ हुकम में है, हुकम के बाहर कुछ नहीं। एक सीख भी समझ आ जाए तो बहुत है। पर हम पढ़ते तो हैं, पर सुनते नहीं। गुरु नानक देवजी को गए पाँच सौ से अधिक साल हो गए, पर हम अब भी जन्म-मरण के चक्र में घूम रहे हैं — क्योंकि हमने सुनना नहीं सीखा।
पढ़ना, सुनना नहीं है। चमड़े के कानों से सुनना पर्याप्त नहीं, अंतरात्मा से सुनना है। आत्मा वही चेतना है जो सचखंड से जुड़ी है। वहाँ से वचन आते हैं, पर हम उन्हें इस नश्वर शरीर से सुनने की कोशिश करते हैं।
मार्ग की शुरुआत अच्छी है — पाठ, जप, कीर्तन — पर अंत में अजप्पा होना चाहिए। मुख से जपना नहीं, बल्कि अंतरात्मा में स्थिर होना ही सच्चा जप है। जब मन पूरी तरह स्थिर हो जाता है, वही ब्रह्म की स्थिति है।
इसलिए “सुनिए” केवल शब्द सुनने की पुकार नहीं, बल्कि आत्मा को जागृत करने का निमंत्रण है। गुरु नानक देव जी का संदेश केवल उनके समय के लिए नहीं, हर युग के लिए है। उनके जन्म दिवस का सच्चा उत्सव तभी है जब हम भीतर से सुनना शुरू करें, मन को स्थिर करें और माया से ऊपर उठें — क्योंकि स्थिर मन ही ब्रह्म है।
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