नई दिल्ली: सैकड़ों साल पहले, जब वॉट्सऐप या ईमेल नहीं थे, तब मैसेज कैसे पहुंचते थे? जवाब है - कबूतरों से। वही कबूतर, जो आज हमारे आसपास दिखते हैं, एक समय में दुनिया के सबसे भरोसेमंद पोस्टमैन हुआ करते थे। दिशाओं को पहचानने की अपनी अद्भुत क्षमता और घर लौटने की पैदाइशी आदत की वजह से इन नन्हे दूतों ने इतिहास में कई बार बड़ी भूमिकाएं निभाईं। लेकिन, क्या आपने कभी सोचा है कि आखिर कैसे ये कबूतर दिशाओं की पहचान करते हैं और सैकड़ों किलोमीटर का सफर तय करके वापस अपने घर लौट आते हैं।?
कबूतर जितना दिखते हैं उससे कहीं ज्यादा रहस्यमयी होते हैं। ये पक्षी आज भी वैज्ञानिकों के लिए 'छठी इंद्री' यानी दिशा खोजने की अपनी कमाल की क्षमता पर चल रहे रिसर्च का केंद्र बने हुए हैं। पुराने जमाने से ही, चाहे वो प्राचीन रोम रहा हो या दूसरे विश्व युद्ध में मित्र देशों की सेनाएं, इंसानों ने कबूतरों का इस्तेमाल संदेश ले जाने के लिए किया है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इनमें अपने घर वापस लौटने की गजब की काबिलियत होती है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि कबूतर और दूसरे कई प्रवासी पक्षी पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का इस्तेमाल करके सही रास्ते पर बने रहते हैं। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल ये है कि ये पक्षी इस चुंबकीय जानकारी को कैसे पहचानते और समझते हैं? इसी सवाल का जवाब ढूंढने के लिए वैज्ञानिक लगातार रिसर्च कर रहे हैं।
मई 2012 में वैज्ञानिकों ने एक बड़ी खोज की। उन्होंने बताया कि जब एक कबूतर को चुंबकीय क्षेत्र में रखा जाता है, तो उसके आंतरिक कान से जुड़ी ब्रेनस्टेम कोशिकाएं सक्रिय हो जाती हैं। ह्यूस्टन में बायलर कॉलेज ऑफ मेडिसिन के न्यूरोसाइंटिस्ट जे. डेविड डिकमैन ने इस रिसर्च की अगुवाई की। उनका कहना है कि ब्रेन कोशिकाएं पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की दिशा, तेजी और ध्रुवता का संकेत देती हैं। आसान शब्दों में कहें तो कबूतरों के दिमाग में एक कुदरती GPS सिस्टम होता है।
पहले वैज्ञानिक सोचते थे कि कबूतरों की चोंच में आयरन से भरपूर न्यूरॉन्स होते हैं, जो चुंबकीय क्षेत्र की जानकारी दिमाग तक पहुंचाते हैं। लेकिन, बाद में एक टीम ने इस धारणा को गलत साबित कर दिया। उन्होंने पाया कि चोंच की वो आयरन वाली कोशिकाएं न्यूरॉन्स नहीं होतीं, बल्कि वे मैक्रोफेज होती हैं। मैक्रोफेज असल में सफेद रक्त कोशिकाएं होती हैं जो पक्षी की प्रतिरक्षा प्रणाली में मदद करती हैं, यानी बीमारियों से लड़ती हैं।
इस रिसर्च को लीड करने वाले और ऑस्ट्रिया के वियना में इंस्टीट्यूट ऑफ मॉलिक्यूलर पैथोलॉजी के चीफ साइंटिस्ट डेविड कीज ने बताया कि इन कोशिकाओं में आयरन इसलिए होता है क्योंकि वे पुरानी लाल रक्त कोशिकाओं को रीसायकल करती हैं। कीज ने यह भी कहा कि हमने उन्हें पूरे पक्षी में पाया, खोपड़ी से लेकर पंखों तक।
ये कोशिकाएं सिर्फ दिशा खोजने में ही नहीं, बल्कि कबूतर को स्वस्थ रखने में भी मददगार हैं। यह सच है कि दूसरे जानवर भी चुंबकीय क्षेत्र को महसूस कर सकते हैं, जैसे कि ट्राउट मछली अपनी नाक से चुंबकीय जानकारी लेती है और कछुए अक्षांश व देशांतर से रास्ता पहचानते हैं। लेकिन, पक्षियों पर सबसे ज्यादा रिसर्च हुई है।
कबूतर जितना दिखते हैं उससे कहीं ज्यादा रहस्यमयी होते हैं। ये पक्षी आज भी वैज्ञानिकों के लिए 'छठी इंद्री' यानी दिशा खोजने की अपनी कमाल की क्षमता पर चल रहे रिसर्च का केंद्र बने हुए हैं। पुराने जमाने से ही, चाहे वो प्राचीन रोम रहा हो या दूसरे विश्व युद्ध में मित्र देशों की सेनाएं, इंसानों ने कबूतरों का इस्तेमाल संदेश ले जाने के लिए किया है। ऐसा इसलिए, क्योंकि इनमें अपने घर वापस लौटने की गजब की काबिलियत होती है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि कबूतर और दूसरे कई प्रवासी पक्षी पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का इस्तेमाल करके सही रास्ते पर बने रहते हैं। लेकिन, सबसे बड़ा सवाल ये है कि ये पक्षी इस चुंबकीय जानकारी को कैसे पहचानते और समझते हैं? इसी सवाल का जवाब ढूंढने के लिए वैज्ञानिक लगातार रिसर्च कर रहे हैं।
मई 2012 में वैज्ञानिकों ने एक बड़ी खोज की। उन्होंने बताया कि जब एक कबूतर को चुंबकीय क्षेत्र में रखा जाता है, तो उसके आंतरिक कान से जुड़ी ब्रेनस्टेम कोशिकाएं सक्रिय हो जाती हैं। ह्यूस्टन में बायलर कॉलेज ऑफ मेडिसिन के न्यूरोसाइंटिस्ट जे. डेविड डिकमैन ने इस रिसर्च की अगुवाई की। उनका कहना है कि ब्रेन कोशिकाएं पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र की दिशा, तेजी और ध्रुवता का संकेत देती हैं। आसान शब्दों में कहें तो कबूतरों के दिमाग में एक कुदरती GPS सिस्टम होता है।
पहले वैज्ञानिक सोचते थे कि कबूतरों की चोंच में आयरन से भरपूर न्यूरॉन्स होते हैं, जो चुंबकीय क्षेत्र की जानकारी दिमाग तक पहुंचाते हैं। लेकिन, बाद में एक टीम ने इस धारणा को गलत साबित कर दिया। उन्होंने पाया कि चोंच की वो आयरन वाली कोशिकाएं न्यूरॉन्स नहीं होतीं, बल्कि वे मैक्रोफेज होती हैं। मैक्रोफेज असल में सफेद रक्त कोशिकाएं होती हैं जो पक्षी की प्रतिरक्षा प्रणाली में मदद करती हैं, यानी बीमारियों से लड़ती हैं।
इस रिसर्च को लीड करने वाले और ऑस्ट्रिया के वियना में इंस्टीट्यूट ऑफ मॉलिक्यूलर पैथोलॉजी के चीफ साइंटिस्ट डेविड कीज ने बताया कि इन कोशिकाओं में आयरन इसलिए होता है क्योंकि वे पुरानी लाल रक्त कोशिकाओं को रीसायकल करती हैं। कीज ने यह भी कहा कि हमने उन्हें पूरे पक्षी में पाया, खोपड़ी से लेकर पंखों तक।
ये कोशिकाएं सिर्फ दिशा खोजने में ही नहीं, बल्कि कबूतर को स्वस्थ रखने में भी मददगार हैं। यह सच है कि दूसरे जानवर भी चुंबकीय क्षेत्र को महसूस कर सकते हैं, जैसे कि ट्राउट मछली अपनी नाक से चुंबकीय जानकारी लेती है और कछुए अक्षांश व देशांतर से रास्ता पहचानते हैं। लेकिन, पक्षियों पर सबसे ज्यादा रिसर्च हुई है।
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