ऑपरेशन सिंदूर 22 अप्रैल को हुए पहलगाम हमले का एक नपा-तुला और गैर-उकसाऊ जवाब है। बैसरन में हुए कायराना हमले में इस्लामी आतंकवादियों ने जिस तरह धर्म पूछकर पर्यटकों को उनके परिवार के सामने मौत के घाट उतारा, वह तो दुष्टता की इंतहा ही थी। जवाबी कार्रवाई में भारतीय वायु सेना ने 7 मई को 9 आतंकी ठिकानों पर हमले किए और 8 मई को लाहौर समेत कई स्थानों पर पाकिस्तान के एयर डिफेंस रडार सिस्टम नष्ट कर दिए। मंगलवार को रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने कहा कि इन हमलों में कम से कम 100 आतंकवादी मारे गए। छद्म युद्धलंबे समय से पाकिस्तान को आतंकवादी गतिविधियों की जैसे छूट मिली हुई है। भारत न केवल उसकी इन हरकतों को बर्दाश्त करता रहा है बल्कि बिना किसी ठोस वजह के यह उम्मीद भी बनाए हुए है कि पाकिस्तानी अधिकारियों को आज नहीं तो इन कृत्यों की निरर्थकता का एहसास हो जाएगा। 1999 में करगिल, उसी साल IC-814 की हाइजैकिंग, 2001 में संसद पर हमला, 2006 में ट्रेन में हुए सीरियल ब्लास्ट और फिर 2008 में मुंबई आतंकी हमला होने के बाद भी नई दिल्ली को यह समझ नहीं आया कि यह दरअसल भारत से युद्ध का ही एक तरीका है। भारत का फैसलापहलगाम हमले के बाद शुरू में एक पल को सन्नाटा पसर गया था। किसी का धर्म पूछकर फिर उसे गोलियों से छलनी करना- एक ऐसी दरिंदगी थी, जिस पर एकबारगी विश्वास होना कठिन था। उन लोगों की मानसिकता की कल्पना करना भी मुश्किल है, जिन्होंने उन आतंकवादियों को ट्रेनिंग दी होगी या जो इस तरह की नफरत को आत्मसात करते होंगे। उसके बाद पूरे देश में उस सन्नाटे का स्थान गुस्से ने ले लिया। भारत सरकार ने जल्दबाजी में फैसला नहीं किया। अच्छी तरह सोच-विचार के बाद कदम उठाया। उसे पाकिस्तान को समझाना था कि अच्छा पड़ोसी न बनने के क्या नुकसान होते हैं। कट्टर इस्लामिस्ट जनरलपाकिस्तान ने बदला लेने की कसम खाई है। बुधवार को पाकिस्तान सरकार ने कहा कि देश की संप्रभुता के उल्लंघन और बेकसूर पाकिस्तानी नागरिकों की जान का बदला लिया जाएगा। इसके लिए जगह, वक्त और तरीका वे खुद तय करेंगे। साफ है कि इस सबको अंजाम आर्मी हेडक्वॉर्टर, रावलपिंडी ही देगा, जिसकी कमान अभी एकदम अलग टाइप के प्रमुख असीम मुनीर के हाथों में है। मुनीर हिंदुओं से नफरत करने वाले कट्टर इस्लामिस्ट हैं। कश्मीर तो बहाना हैभारत को यह भी याद रखना होगा कि कश्मीर पाकिस्तान के गले की नस नहीं है, जैसा कि मुनीर और उनके सहयोगी सबको यकीन दिलाना चाहते हैं। असल में उसके गले की नस तो बलूचिस्तान और सिंध हैं। कश्मीर तो बस उस नैरेटिव को बनाए रखने का एक टूल है, जिसके सहारे देश के अंदर सेना की सर्वोच्चता कायम रखी जाती है। एक्सटेंशन पर निगाहनवंबर 2022 में सेना प्रमुख बने मुनीर नवंबर 2025 के बाद एक्सटेंशन पाने के जुगाड़ में हैं। भारत के साथ एक संक्षिप्त, सीमित युद्ध या उसके खिलाफ एक बड़ा आतंकवादी हमला उन्हें उस मकसद तक पहुंचा सकता है। जाहिर है, पाकिस्तानी सेना भारत के खिलाफ सस्ते युद्ध के एक साधन के रूप में जिहाद का इस्तेमाल जारी रखने वाली है। हार भी जीतपाकिस्तान की सेना और उसके राजनेता काफी पहले से भारत को इकतरफा दुश्मनी का निशाना बनाए हुए हैं। वहां की सेना ने केवल भारत को कुचलने की बात करती रही है, बल्कि आगे चलकर उन्होंने एक उलटा तर्क भी गढ़ लिया। इस तर्क के मुताबिक भारत के हाथों मिली हार को भी जीत करार दिया जा सकता है क्योंकि यह भारत के वर्चस्व को चुनौती देने का संकेत है। यू-टर्न का विकल्प नहींकश्मीर को पाकिस्तान के ‘गले की नस’ घोषित कर देने के बाद अब वहां की सेना भारत के प्रति अपनी नीतियों पर यू-टर्न नहीं ले सकती। पाकिस्तानी नेता भी रावलपिंडी की इसी तान पर नाचते रहे हैं कि कश्मीर के बिना पाकिस्तान अधूरा है। असल में पाकिस्तानी सेना का सबसे बड़ा डर यह है कि अगर कहीं दोनों देशों के बीच शांति कायम हो जाएगी तो असली सत्ता आर्मी के हाथ से निकलकर अवाम और उनके चुने हुए नुमाइंदों के हाथ चली जाएगी। परमाणु हथियार के बावजूदहमें इस दलील को अपने ऊपर हावी होने देने से बचना होगा कि पाकिस्तान तो परमाणु हथियारों की आड़ में हमारे खिलाफ जिहाद छेड़ सकता है, लेकिन हम उसके खिलाफ युद्ध में नहीं उतर सकते। चूंकि हम पाकिस्तान को सुधार नहीं सकते, इसलिए बेहतर रास्ता यही है कि फिलहाल उसे नजरअंदाज करते हुए अपनी ताकत बढ़ाने पर ध्यान केंद्रित करें। कम से कम तब तक के लिए, जब तक कि वह भारत और बाकी पूरी दुनिया के साथ एक सामान्य देश के रूप में व्यवहार करना नहीं सीख लेता। (लेखक रॉ के पूर्व प्रमुख हैं)
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