हृदयनारायण दीक्षित
तीन दिन बाद भारत में दीपपर्व है। वातावरण मधुवाता है। कुछ दिन पहले गर्म हवाओं के झोंके थे। संप्रति वातायन में न शीत है और न ही उमस ताप। वर्षा रानी भी गरज बरस कर चली गईं। धन का पर्व धनतेरस है। भारत ने अपनी करेन्सी को रूपया कहा। मुद्रा का ‘रूपया’ नाम और भी दिलचस्प। ‘रूप-या’ संस्कृत से आया है। रूप-या का अर्थ हुआ-जो रूप है। रूपया बड़ा मजेदार है। आकर्षण भी है। रूप में यह कागज है। इस रूप के भीतर समस्त भौतिक वस्तुए छुपी हैं। यहाँ रूपया दो, जो पसंद है वह लो। रूपया बड़ा शक्तिशाली है। ऋग्वेद में उचित ही मुद्रा को देवताओं जैसा शक्तिशाली बताया गया है। तरह-तरह के रूप धारण करना। रूपया बहुरूपया है। धनतेरस और दीपावली लक्ष्मी आराधना की मुहूर्त है। लक्ष्मी मनुष्य को धनार्जन ‘शुभ लाभ’ देती हैं। अर्थशास्त्र में उद्यमी को साहसी बताया गया है। वह साहस करता है, कारखाना वगैरह लगाता है। साहस का प्रतिफल पाता है। ‘शुभ लाभ’ भारतीय चिन्तन का विकास है। लाभ में श्रमिकों का शोषण, टैक्सचोरी और भ्रष्टाचार भी शामिल है। ‘शुभ लाभ’ ईमानदार उद्यमी का हिस्सा है।
पर्व त्योहार दिक् और काल के भीतर हैं। देव प्रकाशवाची हैं। जहां-जहां ज्योतिर्गमय प्रकाश, वहा वहां दिव्यता और वहां-वहां देवता। हम भा-रत हैं। भा अर्थात प्रकाश, रत यानी संलग्न। माना जाता है कि प्रकाश और अंधकार का संघर्ष सनातन है। लेकिन यह सही नहीं है। अंधकार और प्रकाश दो नहीं हैं। प्रकाश का शून्य हो जाना अंधकार है। इसी तरह अंधकार शून्य होना प्रकाश है। सूर्य प्रकाश पुंज है। उन्हें नमस्कार हमारी संस्कृति है। हम चन्द्र को अध्र्य देकर पूंजते हैं। चन्द्र ब्रह्माण्ड का मन है। पूर्णिमा का प्रकाश उपास्य है। दूसरे ही दिन से चांद घटने लगता है और अमावस तक रोजाना घटता है। अमावस परिपूर्ण अंधकार रात्रि है। अगले दिन से अंधकार पिटता है, प्रकाश बढ़ता है, 15 दिन बाद पूर्णिमा आती है। पूनो (पूर्णिमा) का चन्द्र अपनी पूरी आभा, प्रभा दीप्ति और प्रीति के साथ खिलता है। भारत ने प्रत्येक पूर्णिमा को उत्सव बनाया। अषाढ़ पूर्णिमा का चन्द्र बादलों से भी ढकता है। लेकिन उन्मुक्त चमकता है सो इस रात गुरू पूर्णिमा। श्रावण की पूर्णिमा रक्षाबंधन होती है लेकिन शरद् चन्द्र का क्या कहना? बहुत दूर आसमान में बैठा शरद् चन्द्र धरती की प्रीति में अमृतघट उलीचता है, भारत ने शरद् पूनो के चन्द्र को बहुत प्यार किया है। वैदिक ऋषि सौ शरद् जीने के अभिलाषी थे-जीवेम शरदं शतं। सौ शरद् देखना भी चाहते थे-पश्येम शरदं शतं।
शरद पूनो की दीप्ति प्रीति ज्यादा गाढ़ी है ठीक वैसे ही 15 दिन बाद आने वाली कार्तिक अमावस्या का अंधकार बाकी अमावसों से ज्यादा गाढ़ा और गहरा जान पड़ता है। भारत ने प्रगाढ़ अंधकार वाली इस रात्रि को दीपोत्सव बनाया। शरद् पूर्णिमा की रात रस, गंध, दीप्ति, प्रीति, मधु, ऋत और मधुआनंद तो इसके ठीक बाद झमाझम दीपमालिका। कार्तिकी अमावस का अंधकार प्रकाश की अनुपस्थिति ही नहीं होता। माना जाता है कि यह अस्तित्वगत होता है, अनुभूति प्रगाढ़ हो तो पकड़ में आता है। जहां जहां तमस् वहां वहां प्रकाश-दीप। प्राचीन पूर्वजों की कर्मशक्ति का रचा गढ़ा तेजोमय प्रकाश है। प्रकाश ज्ञानदायी और समृद्धिदायी भी है। भारत दीप पर्व की रात रात केवल भूगोल नहीं होता। भारत इस रात ‘दिव्य दीपशिखा’ हो जाता है। वातायन में शीत और ताप का प्रेम प्रसंग चलता है। घर, आंगन, तुलसी के चैबारे, गरीब किसान के दुवारे, खेत खलिहान, नगर, गांव, मकान, दुकान, ऊपर नीचे सब तरफ दीप शिखा।
तुलसीदास ने रामचरितमानस उत्तर काण्ड में दीप शिखा का रूपक बनाया है। वे सात्विक श्रद्धा को गाय बताते है, जपतप नियम को गाय का चारा। फिर इस गाय से परम धर्ममय दूध निकालते हैं। निष्काम भाव की अग्नि पर उबाल कर धैर्य आदि भावों से ठंढ़ा कर दही बनाते है। इस दही से ‘मुदिता मथै विचार मथानी” के जरिए मक्खन निकालते हैं। इस मक्खन को योग अग्नि पर गरम कर ‘ज्ञान घृत’ पाते हैं। चित्त के दिया (दीपक) में इस घी को डालते है। तीन गुण तीन अवस्थाओं (जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति) से परे ‘तुरीय अवस्था’ की बाती सजाते हैं। तुलसीदास बताते हैं कि यह दीपक विज्ञानमय है-एहि विधि लेसे दीप, तेज राशि विज्ञानमय। फिर कहते हैं “सोहमस्मि इति वृत्ति अखण्डा/दीपशिखा सोई परम प्रचण्डा।” दीपशिखा के प्रकाश में जीव ब्रह्म हो जाता है, “आत्म अनुभव सुख सुप्रकाशा।” तुलसी के सौन्दर्यबोध (बालकाण्ड) में भी दीपशिखा है “सुन्दरता कहु सुन्दर करई/छविग्रह दीपशिखा जनु बरई। दीपशिखा भारत का मन है। सभी साधकों के लिए दीप मालिका भारत के मन की स्वर्णमय दीपशिखा है। दीपक अपना हृदय-स्नेह (तेल) उड़ेलता है, बाती जलाता है। तब अंधकार से लड़ता है, प्रकाश देता है। दीपक के नीचे अंधेरा रहता है लेकिन दूसरों का तमसावृत पथ प्रकाशवान होता है।
दीप पर्व स्वाभाविक ही लक्ष्मी गणेश का नीराजन मुहूर्त बना। ऋग्वेद के रचनाकाल में गण (समूह) थे। प्रत्येक गण का एक गण प्रमुख या गणपति होता था और एक आराध्य देवता यानी गण-ईश था। ऋग्वेद (2.23.1) में बृहस्पति को गणपति कहा गया है, “गणानां त्वां गणिपतिं हवामहे-आप गणों के गणपति हैं।” ये गणपति प्रकाशदाता भी हैं। (वही मन्त्र 3) ऋग्वेद के गणपति कवि हैं, विद्वान है लेकिन यजुर्वेद के गणपति ‘निधिपति’ भी है-निधीनां त्वा निधिपति। दीप-उत्सव है अतिरिक्त आनंद का अतिरेक। सम्पूर्णता का केन्द्र है उत्स। उत्सव इसी केन्द्रक का उफनाया आनंद है। लेकिन उत्सव उल्लास नहीं रहे। पहले उत्सव की खबर ऋतु देती थी, माह और तिथि उत्सवों की सूचना थे, अब उत्सव की खबर अखबारी विज्ञापन देते हैं। विज्ञापन नया स्वप्न संसार देते हैं। बाजारी वस्तुएं उत्सव का विकल्प नहीं हो सकती। बाजार में मादक क्रान्ति है। उत्सवी मानुष हलकान है। करें तो क्या करें? दीपावली नाक का सवाल बन गयी है। खरीददारी स्टेटस सिम्बल है। जिसने खरीददारी नहीं की, वह उत्सव से बाहर हो गया।
छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार ”सृष्टि का समस्त सर्वोत्तम और पुरूषोत्तम प्रकाशरूपा है।“ परम तेजोमय सूर्य हैं। वे सहस्त्र आयामी प्रकाशरूपा हैं। गीता के अर्जुन ने विश्वरूप देखा, उसके मुंह से शब्द फूटे “दिव्य सूर्य सहस्त्राणि-सहस्त्रों सूर्यो का प्रकाश एक साथ जगमगा उठा।” उपनिषद् के ऋषियों ने परमसत्ता की अनुभूति को प्रकाशरूप ही पाया। कठोपनिषद् (2.2.15), मुण्डकोपनिषद् (2.2.10) व श्वेताश्वतर उपनिषद् (6.10) में एक साथ गाए गए मंत्र में कहते हैं “न तत्र सूर्यो भाति, न चन्द्रतारकम/नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयंमग्नि-वह न सूर्य चमकते हैं और न चांद तारे। बिजली भी नहीं, अग्नि की बात है क्या है?” बताते हैं “तमे भान्तमनुभाति सर्वं उसी के प्रकाश से यह सब प्रकाश है। तस्य भासा सर्वम् इदं विभाति-उसी की दीप्ति से यह सब प्रकाशित हैं। प्रकाश अमरत्व है, अज्ञान मृत्यु। वृहदारण्यक उपनिषद् (1.3.28) के ऋषि की प्रार्थना है, “असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतं गमयेति-हम असत् से सत्, तमम से ज्योति और मृत्यु से अमरत्व की ओर चलें।” ऋग्वेद के अंतिम सूक्त में कहते हैं, ”हम साथ-साथ चलें। साथ-साथ वार्ता करें। हमारे सबके मन एक सामान हों। सामूहिकता का भाव भी उत्सव है।” भारत की ज्योतिर्गमय आकांक्षा चिरन्तन है। शुभकामना है, दीपावली भारत के जन गण मन को दीप्ति दे, आलोक दे, ज्योतिर्मय आभा दे, दीपशिखा की प्रभा दे। आत्मबोध दे, इतिहास बोध दे-मृत्र्योमां अमृतो गमय।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)
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हिन्दुस्थान समाचार / संजीव पाश
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