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'वन नेशन-वन इलेक्शन' को लागू करने में सरकार के सामने क्या मुश्किलें आ सकती हैं?

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Getty Images वन नेशन वन इलेक्शन से केंद्र और राज्य के बीच भी खींचतान की आशंका जताई जा रही है

केंद्रीय कैबिनेट ने बुधवार को 'एक देश, एक चुनाव' पर बनाई उच्च स्तरीय कमेटी की सिफ़ारिशों को मंज़ूर कर लिया है. यह कमेटी पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में बनाई गई थी.

केंद्र सरकार का दावा है कि 'वन नेशन वन इलेक्शन' चुनाव सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम है.

कमेटी के प्रस्तावों के मुताबिक़ भारत में 'वन नेशन वन इलेक्शन' को लागू करने के लिए दो बड़े संविधान संशोधन की ज़रूरत होगी. इसके तहत पहले संविधान के अनुच्छेद 83 और 172 में संशोधन करना होगा.

लेकिन मौजूदा लोकसभा में बीजेपी के पास 240 सीटें ही हैं और मोदी सरकार को बहुमत के लिए सहयोगी दलों के समर्थन की ज़रूरत है और ये सरकार के लिए बहुत आसान नहीं दिखता है.

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हालांकि मोदी सरकार को इस मुद्दे पर ज़्यादातर सहयोगियों के अलावा कुछ अन्य दलों का समर्थन भी हासिल है, लेकिन प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने इसका विरोध किया है. इसके अलावा कई क्षेत्रीय दल लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने का खुलकर विरोध करते हैं.

जानकार मानते हैं कि सरकार के सामने चुनौती 'वन नेशन वन इलेक्शन' को लागू कराने के लिए ज़रूरी विधेयक पास कराने की ही नहीं बल्कि व्यावहारिक तौर पर भी कई मुश्किलें हैं.

image BBC एक देश एक चुनाव के लिए संविधान संशोधन कराना केंद्र सरकार के लिए बड़ी चुनौती हो सकती है संविधान संशोधन कितना आसान

भारत में लोकसभा और विधानसभा चुनाव को एक साथ कराने का मुद्दा साल 1983 में भी उठा था, लेकिन उस वक़्त केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार ने इसे कोई महत्व नहीं दिया था.

उसके बाद साल 1999 में भारत में ‘लॉ कमीशन’ ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का सुझाव दिया था. उस वक़्त केंद्र में बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए की सरकार चल रही थी.

साल 2014 में बीजेपी ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के मुद्दे को अपने चुनावी घोषणापत्र में शामिल किया था. हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त को लाल क़िले से दिए अपने भाषण में भी 'वन नेशन वन इलेक्शन' का ज़िक्र किया था.

हालांकि इस मुद्दे पर विपक्षी दल और राजनीतिक विश्लेषक बीजेपी और केंद्र सरकार पर सवाल उठाते रहे हैं. फ़िलहाल महाराष्ट्र और हरियाणा का ज़िक्र किया जा रहा है, जहाँ पिछली बार विधानसभा चुनाव एक साथ हुए थे.

जबकि इस साल इन दोनों राज्यों के चुनाव भी अलग-अलग हो रहे हैं. इसके अलावा भी कई चुनावों का ज़िक्र किया जाता है जो 'वन नेशन वन इलेक्शन' के सिद्धांत से मेल नहीं खाता है.

वरिष्ठ वकील और संविधान के जानकार संजय हेगड़े कहते हैं, "इसे लागू करने के लिए सरकार को कई संविधान संशोधन कराने होंगे और इसके लिए उनके सहयोगी साथ देंगे या नहीं यह भी निश्चित नहीं है. अगर यह पारित हो भी जाता है तो मामला सुप्रीम कोर्ट में जाएगा, क्योंकि यह संविधान के मूलभूत ढांचे को बदलने वाला होगा."

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संजय हेगड़े के मुताबिक़ एक साथ चुनाव कराने का मतलब है कि एक तरह का प्रेसीडेंशियल फ़ॉर्म ऑफ़ डेमोक्रेसी हो जाएगा, यानी चुनाव कुछ इस तरह का हो जाएगा कि 'आपको नरेंद्र मोदी पसंद हैं या नहीं हैं, आपको राहुल गांधी पसंद हैं या नहीं हैं.'

लोकसभा के पूर्व महासचिव और संविधान के जानकार पीडीटी आचारी के मुताबिक़, "वन नेशन वन इलेक्शन को लागू करने के लिए संविधान संशोधन के लिए संसद में दो तिहाई बहुमत की ज़रूरत होगी. भारत के संवैधानिक ढांचे में वन नेशन वन इलेक्शन कराना संभव ही नहीं है क्योंकि यह संविधान के मूलभूत ढांचे के ख़िलाफ़ है."

पीडीटी आचारी कहते हैं, "राज्य विधानसभा का चुनाव संविधान की सातवीं अनुसूची में 'स्टेट लिस्ट' में आता है. राज्य विधानसभा को समय से पहले भंग करने का अधिकार राज्य सरकार के पास होता है. लेकिन 'वन नेशन वन इलेक्शन' के लिए राज्य विधानसभाओं से यह अधिकार छीन लिया जाएगा, जो संविधान के मूलभूत ढांचे के ख़िलाफ़ है. इसलिए यह कभी नहीं हो सकता है."

मसलन लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने के लिए उन राज्यों की विधानसभा को भी भंग करना होगा, जिनका कार्यकाल पूरा नहीं हुआ होगा.

विधानसभा भंग करने का अधिकार राज्य सरकार के पास नहीं रह जाएगा और इसका नियंत्रण केंद्र सरकार के पास चला जाएगा.

वहीं, वरिष्ठ पत्रकार प्रदीप सिंह ने बीबीसी संवाददाता संदीप राय से कहा था कि 'वन नेशन, वन इलेक्शन' कोई आज की बात नहीं है. इसकी कोशिश 1983 से ही शुरू हो गई थी और तब इंदिरा गांधी ने इसे अस्वीकार कर दिया था.

प्रदीप सिंह ने बीबीसी को बताया था, "चुनावों में ब्लैक मनी का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता है और अगर एक साथ चुनाव होते हैं तो इसमें काफ़ी कमी आएगी. दूसरे चुनाव ख़र्च का बोझ कम होगा, समय कम ज़ाया होगा और पार्टियों और उम्मीदवारों पर ख़र्च का दबाव भी कम होगा."

उनका तर्क था, "पार्टियों पर सबसे बड़ा बोझ इलेक्शन फ़ंड का होता है. ऐसे में छोटी पार्टियों को इसका फ़ायदा मिल सकता है क्योंकि विधानसभा और लोकसभा के लिए अलग-अलग चुनाव प्रचार नहीं करना पड़ेगा."

राज्यों से टकराव की आशंका image BBC

भारत के संविधान की सातवीं अनुसूची अलग-अलग मुद्दों पर राज्य और केंद्र के बीच अधिकार के बंटवारे की बात करता है.

इसमें सेंटर लिस्ट के विषयों पर क़ानून बनाने का अधिकार केंद्र सरकार के पास है, जबकि स्टेट लिस्ट राज्य सरकार के अधीन है. कॉन्करेंट लिस्ट यानी समवर्ती सूची के विषयों पर केंद्र और राज्य दोनों को अधिकार दिए गए हैं.

पीडीटी आचारी कहते हैं, "केशवानंद भारती के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट कहा है कि आप संविधान में कोई भी संशोधन कर सकते हैं, लेकिन इसके मूलभूत ढांचे में फ़ेरबदल नहीं कर सकते हैं."

पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई क़ुरैशी के मुताबिक़ इस वन नेशन वन इलेक्शन के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली कमेटी को 47 राजनीतिक दलों ने अपनी प्रतिक्रिया भेजी थी, जिनमें 15 दलों ने इसे लोकतंत्र और संविधान के संघीय ढांचे के ख़िलाफ़ बताया था.

इस मामले में एक और संकट स्थानीय निकायों के चुनावों से जुड़ा है. सरकार ने जिन प्रस्तावों को मंज़ूरी दी है, उनमें स्थानीय निकायों यानी ग्राम पंचायत और नगर पंचायत के चुनाव लोकसभा विधानसभा चुनावों के 100 दिनों के अंदर कराने का ज़िक्र किया गया है.

वरिष्ठ पत्रकार और संसदीय मामलों पर नज़र रखने वाले अरविंद सिंह कहते हैं, "यह सही है कि चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद बहुत सारे काम पर रोक लग जाती है. इसके समाधान के लिए साल 2013 में संसद की एक समीति ने कहा था कि 'आचार संहिता' मुद्दे पर विचार होना चाहिए."

"लेकिन मौजूदा सरकार स्थानीय निकायों के चुनाव 100 दिनों में कराने की बात कर रही है. इसके अलावा जिस राज्य की सरकार समय से पहले गिर जाएगी वहां दोबारा बचे हुए कार्यकाल के लिए विधानसभा चुनाव होंगे."

"यानी यह जीएसटी की तरह होगा, 'जिसे वन नेशन वन टैक्स' कहा तो जाता है, लेकिन फिर भी हम टोल टैक्स, इनकम टैक्स जैसे कई तरह के टैक्स भरते ही हैं."

सरकार की दलील image Getty Images एक साथ चुनाव कराना भारत में एक बड़े संवैधानिक बहस भी शुरू कर सकता है

भारत में आज़ादी और संविधान के अस्तित्व में आने के बाद पहली बार साल 1951-52 में आम चुनाव हुए थे. पहली बार चुनाव होने से उस वक़्त 22 राज्यों की विधानसभा के चुनाव भी साथ कराए गए थे. यह प्रक्रिया क़रीब 6 महीने तक चली थी.

भारत में हुए पहले आम चुनाव में 489 लोकसभा सीटों के लिए क़रीब 17 करोड़ मतदाताओं को वोटिंग करनी थी, जबकि मौजूदा समय में भारत में वोटरों संख्या क़रीब 100 करोड़ है.

भारत में 1957, 1962 और 1967 में भी लोकसभा और कई राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ हुए थे.

हालांकि तब भी 1955 में आंध्र राष्ट्रम (जो बाद में आंध्र प्रदेश बना), 1960-65 में केरल और 1961 में ओडिशा में अलग से चुनाव हुए थे.

साल 1967 के बाद कुछ राज्यों की विधानसभा जल्दी भंग हो गई और वहां राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया, इसके अलावा साल 1972 में होने वाले लोकसभा चुनाव भी समय से पहले कराए गए थे.

1983 में भारतीय चुनाव आयोग ने एक साथ चुनाव कराए जाने का प्रस्ताव तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार को दिया था. लेकिन यह तब प्रस्ताव से आगे नहीं बढ़ पाया था.

दावा किया जाता है कि देश में एक साथ चुनाव कराने से देश के विकास कार्यों में तेज़ी आएगी.

दरअसल चुनावों के लिए आदर्श आचार संहिता लागू होते ही सरकार कोई नई योजना लागू नहीं कर सकती है. आचार संहिता के दौरान नए प्रोजेक्ट की शुरुआत, नई नौकरी या नई नीतियों की घोषणा भी नहीं की जा सकती है.

यह भी तर्क दिया जाता है कि 'वन नेशन वन इलेक्शन' से चुनावों पर होने वाले ख़र्च भी कम होगा. इससे सरकारी कर्मचारियों को बार-बार चुनावी ड्यूटी से भी छुटकारा मिलेगा.

image ANI 'वन नेशन वन इलेक्शन' के लिए बड़े पैमाने पर बुनियादी ज़रूरतों पर ख़र्च की ज़रूरत पड़ेगी भारत में चुनाव पर ख़र्च

'वन नेशन वन इलेक्शन' के पीछे बड़े चुनावी ख़र्च की दलील भी कई बार दी जाती है.

पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त ओपी रावत इसके बारे में बीबीसी को बताया था कि भारत का चुनाव दुनियाभर में सबसे सस्ता चुनाव है. भारत में चुनावों में क़रीब एक अमेरिकी डॉलर (आज की तारीख में करीब 84 रुपये) प्रति वोटर के हिसाब से ख़र्च होता है.

इसमें चुनाव की व्यवस्था, सुरक्षा, कर्मचारियों का तैनाती, ईवीएम और वीवीपीएटी पर होने वाला ख़र्च शामिल है. भारत के ही पड़ोसी देश पाकिस्तान में पिछले आम चुनाव में क़रीब 1.75 डॉलर प्रति वोटर ख़र्च हुआ था.

ओपी रावत के मुताबिक़ जिन देशों के चुनावी ख़र्च के आंकड़े उपलब्ध हैं, उनमें केन्या में यह ख़र्च 25 डॉलर प्रति वोटर होता है, जो दुनिया में सबसे महंगे आम चुनावों में से शामिल है.

भारत के पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एसवाई कुरैशी कहते हैं, “भारत में चुनाव कराने में क़रीब चार हजार करोड़ का ख़र्च होता है, जो कि बहुत बड़ा नहीं है."

"इसके अलावा राजनीतिक दलों के क़रीब 60 हज़ार करोड़ के ख़र्च की बात है तो यह अच्छा है. इससे नेताओं और राजनीतिक दलों के पैसे ग़रीबों के पास पहुंचते हैं.”

भारत में बदलते समय में चुनावों में तकनीक का इस्तेमाल भी बढ़ा है. इसके बावजूद भी चुनावों के दौरान बैनर-पोस्टर और प्रचार सामग्री बनाने, चिपकाने वालों से लेकर ऑटो और रिक्शेवाले तक को काम मिलता है.

इस तरह से आम लोगों और उनकी अर्थव्यवस्था के लिए चुनाव कई मायनों में अच्छा भी माना जाता है.

एसवाई क़ुरैशी के मुताबिक़ अगर लोकसभा, विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनाव एक साथ कराए जाएं तो इसके लिए मौजूदा संख्या से तीन गुना ज़्यादा ईवीएम की ज़रूरत पड़ेगी.

भारत में इस्तेमाल होने वाले एक ईवीएम की क़ीमत क़रीब 17 हज़ार रुपये और एक वीवीपीएटी की क़ीमत भी क़रीब इतनी ही है. ऐसे में 'वन नेशन वन इलेक्शन' के लिए क़रीब 15 लाख़ नए ईवीएम और वीवीपीएटी ख़रीदने की ज़रूरत पड़ सकती है..

बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित

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