"मैं दर्द से बेहाल थी, बहुत तकलीफ़ थी. घर पर कोई नहीं था. नदी भर गई थी. घर से निकल नहीं पाए और एंबुलेंस भी नहीं आ पाई. इस कष्ट के बीच प्रसव हुआ."
ये आपबीती रेणुका की है. रेणुका अपनी गोद में दस दिन का बच्चा लिए नाउम्मीदी में डूबी आवाज़ में बीबीसी को ये सब बताती हैं.
उत्तर प्रदेश का बुंदेलखंड इलाक़ा वैसे तो सूखे की वजह से सुर्खियों में रहता है लेकिन इसका एक ऐसा क्षेत्र है जो बारिश के समय टापू में तब्दील हो जाता है.
झांसी ज़िले के पचवई गांव को स्कूल, अस्पताल और बाज़ार से जोड़ने वाली एकमात्र सड़क मानसून की बारिश के बाद कई फ़ीट गहरे पानी में डूब जाती है और यहां जनजीवन ठप-सा पड़ जाता है.
गांव से निकलने के लिए कोई दूसरी सड़क नहीं है. बारिश के दिनों में बच्चे ट्यूब से तैरकर स्कूल जाते हैं.
इस दौरान गर्भवती महिलाओं का बिना किसी मेडिकल सुविधा के गांव में ही प्रसव कराया जाता है.
मौसम विभाग के अनुसार, उत्तर प्रदेश के बुंदेलखंड में इस बार सामान्य से अधिक बारिश हुई है. कई जगहों पर बीस साल के रिकॉर्ड टूट गए हैं, लेकिन पचवई की कहानी कुछ अलग है.
जो सड़क पचवई गांव को बाहर की दुनिया से जोड़ती है उसके नज़दीक कुछ साल पहले चौधरी चरण सिंह डैम बनाया गया था. यहां सिजार नदी का पानी जाने के लिए ढाल बनाया गया था, जिससे सड़क का हिस्सा नीचे हो गया.
इस कारण पिछले दस सालों से बारिश के दिनों में यह सड़क पानी में डूब जाती है और यहां रहने वाले गांव में ही कैद होने को मजबूर हो जाते हैं.
बाक़ी दुनिया से कटा गांवगांव का संपर्क बाज़ार से टूटने का असर ग्रामीणों के रोज़मर्रा के जीवन पर साफ़ तौर पर दिखाई पड़ता है. इस कारण यहां के बीमार बुजु़र्ग और महिलाएं कई तरह की चुनौतियों का सामना कर रहे हैं.
गांव की स्थिति ऐसी है कि खाने तक की चीज़ों के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. महिलाएं घरों में ही आटा पीसकर परिवार का पालन-पोषण कर रही हैं.
ग्राम प्रधान शशिप्रभा यादव ने सड़क पार करने के लिए एक नाव की व्यवस्था तो कर दी है लेकिन अभी भी ग्रामीणों के सामने सड़क पार करना किसी चुनौती से कम नहीं है.
ज़रूरत के वक्त एम्बुलेंस भी गांव तक नहीं पहुंच सकती.
क़रीब 70 साल के जानकी प्रसाद के बाएं पैर में चोट लगी है. वो नाव से इलाज के लिए मऊरानीपुर ज़िला अस्पताल जा रहे हैं.
जानकी प्रसाद कहते हैं, "रास्ता नहीं है, पचवई से मऊ तक. हम बीमार हैं, निकल नहीं पाते हैं. पैर में सूजन है और पट्टी कराने अस्पताल जाना है. बहुत पानी है, आदमी पार नहीं कर पाते हैं. हम लोग कश्ती से निकल पाते हैं. दस साल से यह समस्या है, कोई गांव से नहीं निकल पाता. दूसरा रास्ता भी नहीं है."
शशिप्रभा यादव मानती हैं कि पानी की वजह से बारिश के दिनों में पचवई गांव में हर साल ही आने-जाने की समस्या होती है लेकिन पुल बनवाने के सवाल पर कहती हैं कि अपने स्तर पर जो कुछ हो सकता है उन्होंने वो किया है.
शशिप्रभा कहती हैं, "पचवई गांव में पानी की समस्या है. लोगों को आने-जाने में दिक्कत होती है. इसलिए हमने कश्ती डलवा दी है और एक आदमी भी रख दिया है. उसको सात-आठ हजार रुपये दे रहे हैं. वहां पुल बनना है तो कोई बड़ा अधिकारी बनवाएगा. वो हमारे स्तर का काम नहीं है."
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सड़क पार करने के लिए ग्रामीणों को लोहे की एक छोटी नाव उपलब्ध कराई गई है लेकिन उसकी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है. एक बार में नाव में चार से पांच लोग ही आ सकते हैं.
करिश्मा 12वीं क्लास की छात्रा हैं. जब नाव नहीं थी तब उन्होंने स्कूल जाना बंद कर दिया था. वो कहती हैं कि ट्यूब से सड़क पार करने में उन्हें डर लगता था.
करिश्मा कहती हैं, "इस बार 12वीं क्लास में हूं और यह बोर्ड की परीक्षा का समय है. अब स्कूल जाने में बहुत परेशानी हो रही है. गांव की कोई सुनता ही नहीं है. कभी बिजली चली जाती है. पानी भरे तीन-चार महीने हो गया है, कोई बीमार है तो वो पड़ा ही रहेगा. हमारी पढ़ाई तो बर्बाद हो गई."
करिश्मा ने कहा, "जब यहां नाव नहीं थी, ट्रक वाले ट्यूब पर पटिया बांधकर एक-एक लोग निकलते थे. जो उसको चला लेता था वही निकल पाता था. हम पन्द्रह दिन स्कूल नहीं गए. अभी कुछ दिन पहले नाव आई है, तब हमने स्कूल जाना शुरू किया है. नाव भी ऐसी मंगायी है कि फूटी हुई है. उसमें पानी भर जाता है. पांच-छह आदमी बैठ जाते हैं, तो नाव भर जाती है."
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हमारी मुलाक़ात सुबह नाव से सड़क पारकर स्कूल जा रहे प्रदीप कुमार से हुई. प्रदीप का मानना है कि पुल ही इस समस्या का समाधान है.
प्रदीप कहते हैं, "यहां पर पानी भर जाता है तो मैं स्कूल नहीं जा पाता हूँ. और भी कई सारी समस्याएं हो जाती हैं. जैसे किसी को बुखार या कुछ हो गया तो निकल नहीं पाते हैं. इसीलिए यहां से निकलना बहुत मुश्किल हो जाता है. हमारा यही कहना है यहां पुल बनवाया जाए."
पचवई गांव में कई परिवार गर्भवती महिलाओं को गांव से बाहर किसी सगे-संबंधी के यहां छोड़कर आते हैं. जो गांव में ही हैं उनका बिना किसी चिकित्सा व्यवस्था के प्रसव कराया जा रहा है.
गणेशी देवी ने कहा, "यहां नदी भरी है, तो बच्चे निकल नहीं पाते हैं. हम लोग बाज़ार नहीं जा पाते हैं. आटा की दिक्कत है. अधिक बारिश के कारण खेती नहीं हुई और मकान गिर चुके हैं. हमें मदद तो चाहिये, लेकिन हमारी सुनने वाला कोई नहीं है."
उन्होंने बताया, "जो महिलाएं गर्भवती थीं उन्हें रिश्तेदारी में छोड़ आए हैं. एक महिला की तबीयत दो-तीन दिन खराब रही. बड़ी मुश्किल से गांव में डिलिवरी हुई, कहां ले जाएं? गाड़ी रिक्शा निकल नहीं पाता तो कैसे ले जाएं?"

रेणुका गर्भवती थीं और वो गांव में ही थीं. दस दिन पहले घर पर बिना किसी चिकित्सा व्यवस्था के उनका प्रसव कराया गया. रेणुका ने एंबुलेंस बुलाई लेकिन वह घर तक नहीं आ सकी.
रेणुका कहती हैं, "एंबुलेंस नहीं आ पाई और घर पर डिलीवरी हुई. इधर घर पर भी कोई नहीं था. हम अस्पताल नहीं जा पा रहे हैं. हमारे लिए कोई व्यवस्था तो होनी चाहिए."
वहीं रेणुका के पति कमलेश अपनी बेबसी बताते हैं, "जब मेरी पत्नी की डिलीवरी हुई तो उस दिन खूब पानी बरसा और एंबुलेंस को फ़ोन लगाया तो वह नहीं आई. उस दिन मेरी पत्नी को बहुत कष्ट हुआ लेकिन घर पर ही बच्चा हुआ. मऊरानीपुर नहीं ले जा पाए."
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चौधरी चरण सिंह बांध 2011 में बनकर तैयार हुआ था. ग्रामीणों के अनुसार, तब से बारिश के महीने में चार महीनों के लिए गांव से निकलने वाली सड़क क़रीब 15 फ़ुट गहरे पानी में डूब जाती है.
स्थानीय निवासी और किसान नेता शिव नारायण सिंह ग्रामीणों के साथ मिलकर पिछले कई सालों से पुल बनाने की मांग कर रहे हैं.
उन्होंने बताया, "पुल निर्माण के लिए हमने खुद तीन साल से लगातार शासन-प्रशासन और मुख्यमंत्री को पत्र लिखा, धरना दिया लेकिन यहां कुछ नहीं हुआ. कोई सुनवाई नहीं हुई. ग्रामीण तीन बार से चुनाव का बहिष्कार भी कर रहे हैं लेकिन उसके बदले उन्हें सिर्फ कोरा आश्वासन दिया गया."
शिव नारायण सिंह बताते हैं, "पचवई और कोरियनपुरा का यह बीच का इलाक़ा है, आज से लगभग 10 साल पहले ये एक ढाल बनाया गया था. इस कारण बारिश के दिनों में यहां पानी भर जाता है."
"सिजार नदी से यह पानी आता है. सिंचाई विभाग ने बहुत पहले चौधरी चरण सिंह के नाम से बांध बनाया है, जहां पर यह पानी स्टोर होता है. जब वह बांध भर जाता है तो लगातार 3-4 महीने तक यहां पानी भरा रहता है."
स्थानीय निवासी शेखर राज सड़क डूबने की समस्या को मानव निर्मित मानते हैं.
वो कहते हैं, "सड़क डूबने की समस्या एक दशक पुरानी है और यह समस्या जनप्रतिनिधियों और शासन-प्रशासन द्वारा बनाई गई है. यह प्राकृतिक नहीं बल्कि मानव निर्मित समस्या है. जब कोई डैम बनता है तब आस-पास के इलाकों की मैपिंग होती है लेकिन बिना मैपिंग के सड़क बना दी गई यह अदूरदर्शिता का परिणाम है."
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इस संबंध में सिंचाई विभाग के असिस्टेंट इंजीनियर ने बीबीसी को बताया, "बांध बनने के बाद सड़क बनाई गई और सड़क का निर्माण ज़िला पंचायत ने कराया था. रास्ता ऊंचा कराना चाहिए था लेकिन ऐसा नहीं किया गया. अब वहां पुल बनेगा तभी ग्रामीणों की समस्या का समाधान हो सकता है."
डैम का पानी सड़क पर भरने की बात से इंकार करते हुए उन्होंने कहा, "डैम की मानक क्षमता 209.55 मीटर और 5.58 मिलियन घन मीटर है. जबकि अभी मानक क्षमता से कम 209.20 मीटर पानी है."
ग्रामीण जहां एक तरफ़ आने-जाने की असुविधा के लिए प्रशासन पर सवाल खड़े कर रहे हैं, वहीं प्रशासन ने इस दावे को खारिज करते हुए गांव से आने-जाने के लिए दूसरी सड़क होने की बात कही.
एक ओर ग्राम प्रधान ने पुल बनाने की ज़रूरत बताई और कहा कि यह उनके स्तर का काम नहीं है तो दूसरी तरफ़ उपजिलाधिकारी प्रदीप कुमार सिंह ने वैकल्पिक मार्ग होने का दावा किया है.
प्रदीप कुमार सिंह ने बीबीसी से कहा, "वहां एक बांध है, बारिश ज़्यादा होने के कारण पानी आ गया है. वहां जो ढाल बना था वहां से आना-जाना होता है. वहां नाव लगा दी गई है. लोगों को आवागमन में अब कोई दिक्कत नहीं है."
उन्होंने कहा, "गांव वालों के लिए एक और वैकल्पिक मार्ग है, जहां से लोग आते-जाते हैं. वहां से भी जो सड़क है, बारिश की वजह से वहां कटान हो गया था. उसको भी सही करा दिया गया है. इस समय वहां आवागमन के लिए कोई समस्या नहीं है."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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