किसी भी अर्थशास्त्री से पूछिए, लगभग हर कोई आपको यही बताएगा कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था को जोख़िम में डाल रहे हैं.
विशेषज्ञों का कहना है कि ट्रंंप के टैरिफ़ और प्रवासियों के लिए सख़्त रवैये से 1970 के दशक जैसी "स्टैगफ़्लेशन" (स्टैगनेशन और इंफ़्लेशन यानी आर्थिक ठहराव और महंगाई का मिश्रण) की स्थिति लौटने का ख़तरा है. उस वक्त तेल संकट ने अचानक विकास की गति को रोक दिया था और चीज़ों की कीमतें तेज़ी से बढ़ी थीं.
फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि इस बार संकट ख़ुद पैदा किया गया होगा.
व्हाइट हाउस ने इन आशंकाओं को लगातार नज़रअंदाज़ किया है और विशेषज्ञों पर निशाना साधा है. अमेरिकी लेबर स्टैटिस्टिक्स ब्यूरो की कमिश्नर को कुछ दिनों पहले पद से हटा भी दिया है.
ऐसी स्थिति में आगे क्या होगा, कैसे होगा, इसे लेकर बने सवालों ने अमेरिकी सेंट्रल बैंक के क़दम रोक दिए हैं. बैंक, ब्याज दरों पर कोई फ़ैसला लेने से पहले ताज़ा आंकड़ों का इंतज़ार कर रहा है ताकि हालात पर स्पष्ट जानकारी मिल सके.
रोज़गार बाज़ार में सुस्ती, लेकिन उपभोक्ता खर्च मज़बूतपिछले कुछ हफ़्तों में कंपनियों की ताज़ा रिपोर्ट्स, रोज़गार और महंगाई के आंकड़ों के बावजूद तस्वीर साफ़ नहीं है. लेबर मार्केट से मिल रहे संकेत वाकई चिंता बढ़ाने वाले हैं.
मई और जून में नए रोज़गार के अवसर लगभग नहीं बने, जुलाई में भी रफ़्तार धीमी रही और बेरोज़गार या काम छोड़ चुके लोगों की संख्या बढ़ी है.
1 अगस्त की रोज़गार रिपोर्ट आने के बाद शेयर बाज़ार लुढ़कने लगा था और ट्रंप को झटका दिया, जिसके बाद उन्होंने अमेरिकी लेबर स्टैटिस्टिक्स ब्यूरो की कमिश्नर को बर्ख़ास्त कर दिया.
कुछ दिन बाद, मूडीज़ एनालिटिक्स के अर्थशास्त्री मार्क ज़ैंडी ने सोशल मीडिया पर लिखा कि अर्थव्यवस्था "मंदी के कगार" पर है. हालांकि, सभी विशेषज्ञ इस आकलन से सहमत नहीं हैं.
यह साफ़ है कि अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी हुई है. साल की पहली छमाही में वार्षिक वृद्धि दर 1.2 फ़ीसदी रही, जो 2024 से एक पर्सेंटेज प्वाइंट कम है.
भले ही कुछ कंपनियों ने निराशाजनक आकलन दिए हों, इस कमी के बावजूद, कंज़्यूमर स्पेन्डिंग उम्मीद से बेहतर बना हुआ है. 1 अगस्त के झटके के बाद भी शेयर बाज़ार ने जल्दी ही ऊपर की तरफ बढ़ना शुरू कर दिया था.
अमेरिका के सबसे बड़े बैंक जेपी मॉर्गन चेज़ के मुख्य वित्त अधिकारी ने पिछले महीने निवेशकों से कहा, "हमें अब भी कमज़ोरी के संकेत ढूंढने में मुश्किल हो रही है... उपभोक्ता कुल मिलाकर ठीक ही लग रहे हैं."
इससे उम्मीद जगी है कि पहले की तरह अर्थव्यवस्था एक बार फिर मुश्किल हालात पार कर सकती है, भले ही उसे 1980 के दशक के बाद की सबसे ऊंची महंगाई दर और ब्याज दरों में तेज़ बढ़ोतरी का सामना करना पड़े.
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शुक्रवार को अमेरिकी सरकार ने बताया कि जून से जुलाई के बीच ख़ुदरा दुकानों और रेस्तरां में खर्च 0.5 फ़ीसदी बढ़ा और जून का खर्च पहले के अनुमान से ज़्यादा मज़बूत था.
ऑक्सफ़ोर्ड इकोनॉमिक्स के डिप्टी चीफ़ यूएस इकॉनमिस्ट माइकल पियर्स के मुताबिक़, "उपभोक्ता दबाव में हैं, लेकिन पूरी तरह हार नहीं मानी है."
उनका अनुमान है कि आने वाले महीनों में खर्च में मामूली बढ़त होगी, क्योंकि टैक्स कटौती और शेयर बाज़ार की रिकवरी से उपभोक्ताओं का भरोसा बढ़ेगा.
वो कहते हैं, "धीमी लेकिन टिकाऊ वास्तविक अर्थव्यवस्था के साथ, लेबर मार्केट में तेज़ गिरावट की आशंका कम है."
हालांकि, विशेषज्ञ कहते हैं कि आने वाले महीनों में चुनौतियां बनी रहेंगी. वो मानते हैं कि अभी दुकानों में दाम इतने नहीं बढ़े हैं कि लोग अपने खर्च में कटौती करने लगें.
जुलाई में उपभोक्ता कीमतें पिछले साल की तुलना में 2.7 फ़ीसदी बढ़ीं, ये वही रफ्तार थी जो जून में थी.
लेकिन कई विशेषज्ञों को उम्मीद थी कि ऊंची कीमतें इस साल के अंत में दिखना शुरू होंगी, ख़ासकर तब जब ट्रंप ने अपने सबसे आक्रामक टैरिफ़ योजनाओं को इस महीने तक टाल दिया था.
कॉफ़ी और केले जैसे ज़रूरी और आयात किए गए सामानों के आसान विकल्प नहीं हैं. इनके दाम पहले ही बढ़ चुके हैं.
विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले महीनों में इनकी क़ीमतें और बढ़ेंगी, क्योंकि कंपनियां टैरिफ़ लगने से पहले का स्टॉक बेचकर अब इनके दाम बढ़ाएंगी. विशेषज्ञ कहते हैं कि टैरिफ़ नीतियों का रूप क्या होगा इसे लेकर अब उन्हें ज़्यादा भरोसा है.
इसी वजह से सबका ध्यान प्रोड्यूसर प्राइस इंडेक्स पर था, जो उपभोक्ताओं तक चीज़ें पहुंचने से पहले ली जाने वाली थोक कीमतों को आंकता है और आने वाले रुझानों का संकेत देता है.
जुलाई महीने में इसमें तीन साल से ज़्यादा समय की सबसे तेज़ बढ़ोतरी हुई.
चिंता की बात यह है कि उपभोक्ता और उत्पादक, दोनों के महंगाई के आंकड़े दिखा रहे हैं कि कीमतों में यह बढ़ोतरी सिर्फ़ सामान तक सीमित नहीं है. इससे संकेत मिलता है कि स्टैगफ़्लेशन की स्थिति वाकई लौट सकती है.
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