राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने सुप्रीम कोर्ट को एक 'प्रेसीडेंशियल रेफ़रेंस' भेजा है. इसमें यह राय मांगी गई है कि क्या सुप्रीम कोर्ट राज्यपालों और राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए भेजे गए राज्य के विधेयकों को मंज़ूरी देने के लिए समय-सीमा निर्धारित कर सकता है?
भारत के संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट को सौंपे गए इस ज्ञापन में, राष्ट्रपति ने कुछ सवाल पूछे हैं.
इन नोट में यह सवाल भी शामिल है कि "क्या राज्य विधानमंडल से पारित विधेयक राज्यपाल की स्वीकृति के बिना लागू किया जा सकता है?"
इस मामले पर लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस सांसदपर एक पोस्ट में कहा है, " भारत की ताक़त इसकी विविधता में है- जो राज्यों का एक संघ है और हर किसी की अपनी आवाज़ है."
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राहुल गांधी ने तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के पोस्ट को शेयर करते हुए आरोप लगाया है कि मोदी सरकार राज्यों की आवाज़ को दबाने और निर्वाचित राज्य सरकारों को परेशान करने के लिए राज्यपालों का इस्तेमाल कर रही है.
हम जानने की कोशिश करेंगे कि ऐसे मामले में जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही कोई फ़ैसला दिया हो, क्या अब राष्ट्रपति की तरफ से भेजे गए नोट का उस फ़ैसले पर कोई असर पड़ेगा और इस कदम पर तमिलनाडु सरकार का क्या रुख है?
राहुल गांधी ने लिखा है कि यह संघीय ढांचे पर ख़तरनाक प्रहार है और इसका विरोध ज़रूर किया जाना चाहिए.
इस संदर्भ में राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने सुप्रीम कोर्ट को एक नोट भेजा है, जिसमें पूछा गया है कि क्या राष्ट्रपति और राज्यपालों के लिए राज्य विधानमंडल में पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए समय-सीमा निर्धारित करना संभव है?
राष्ट्रपति का नोट संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत भेजा जाता है.
इस अनुच्छेद के तहत, "यदि किसी कानून के संबंध में कभी कोई सवाल पैदा हुआ हो या इसकी संभावना हो और राष्ट्रपति को ऐसा लगता है कि यह इतना महत्वपूर्ण है कि इस पर सुप्रीम कोर्ट की राय ज़रूरी है तो राष्ट्रपति इन सवालों को कोर्ट के पास उसका विचार जानने के लिए भेज सकते हैं."
"और सुप्रीम कोर्ट, उचित जांच के बाद, राष्ट्रपति को इस पर अपनी राय दे सकता है."
आठ अप्रैल को तमिलनाडु सरकार की एक याचिका पर फ़ैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल विधेयकों को लंबे समय तक रोक कर नहीं रख सकते हैं.
सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए तमिलनाडु सरकार के विधेयकों को अपनी स्वीकृति दी थी, जिसमें कहा गया कि राज्यपाल का तमिलनाडु सरकार द्वारा पारित विश्वविद्यालयों से संबंधित विधेयकों को अपनी स्वीकृति न देना 'अवैध' है.
सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल द्वारा विधेयकों को स्वीकृति देने के लिए समय-सीमा भी निर्धारित की थी. इस फ़ैसले के साथ ही विधेयकों पर फ़ैसला लेने के लिए समय-सीमा राष्ट्रपति के लिए भी निर्धारित की थी.
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, "ये विधेयक राज्यपाल के पास लंबे समय से लंबित थे. राज्यपाल ने सद्भावनापूर्ण तरीक़े से काम नहीं किया."
तमिलनाडु विधानसभा ने साल 2020 और 2023 के बीच 12 विधेयक पारित किए. ये राज्यपाल आरएन रवि को भेजे गए. राज्यपाल ने इन विधेयकों को लंबित रखा. उन पर कोई कार्रवाई नहीं की. अक्तूबर 2023 में राज्य सरकार ने इसके ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. इसके बाद, राज्यपाल ने 10 विधेयकों को बिना किसी सुझाव के वापस कर दिया. राज्य सरकार ने इन 10 विधेयकों को फिर से पारित किया और उन्हें राज्यपाल के पास दोबारा भेजा. उन्होंने इस बार इन सभी विधेयकों को राष्ट्रपति के पास विचार के लिए भेज दिया.

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से उसकी राय जानने के लिए जो नोट भेजे हैं, उसमें ये 14 सवाल किए गए हैं..
1. जब संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल की स्वीकृति के लिए कोई विधेयक भेजा जाता है, तो उनके सामने क्या संवैधानिक विकल्प होते हैं?
2. जब राज्यपाल के पास कोई विधेयक भेजा जाता है, तो क्या राज्यपाल मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य होता है?
3. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल को संविधान से मिली विवेकाधीन शक्तियों का इस्तेमाल करना उचित है?
4. क्या अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के काम की न्यायिक समीक्षा पर संविधान का अनुच्छेद 361 पूरी तरह प्रतिबंध लगाता है?
5. क्या अदालतें राज्यपाल के लिए अनुच्छेद 200 के तहत सभी शक्तियों का प्रयोग करने के लिए समय सीमा निर्धारित कर सकती हैं? भले ही इसके लिए संविधान ने कोई समय सीमा तय नहीं की हो?
6. क्या भारत के संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति द्वारा संवैधानिक विवेक का इस्तेमाल कोर्ट की समीक्षा के अधीन है?
7. क्या अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के विवेक के इस्तेमाल के लिए कोर्ट कोई समय सीमा निर्धारित कर सकता है?
8. जब राज्यपाल राष्ट्रपति की सहमति के लिए या अन्य वजहों से किसी विधेयक को अलग करता है, तो क्या राष्ट्रपति अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट की सलाह और राय लेने के लिए बाध्य है?
9. क्या विचाराधीन विधेयक के कानून बनने से पहले राज्यपाल और राष्ट्रपति अनुच्छेद 200 और 201 के तहत जो फ़ैसले लेते हैं, वो उचित हैं? क्या अदालतों को कानून बनने से पहले किसी भी तरह से विधेयक की विषय-वस्तु पर फ़ैसला लेने की अनुमति है?
10. क्या अनुच्छेद 142 का हवाला देते हुए कोर्ट के आदेश से राष्ट्रपति/राज्यपालों की संवैधानिक शक्तियों को बदला जा सकता है?
11. क्या राज्य विधानमंडल से पारित विधेयक को राज्यपाल की सहमति के बिना कानून के रूप में लागू किया जा सकता है?
12. भारत के संविधान के अनुच्छेद 145(3) के प्रावधानों के अधीन, क्या सुप्रीम कोर्ट की किसी भी पीठ के लिए यह ज़रूरी नहीं है कि वह पहले यह तय करे कि उसके सामने संविधान की व्याख्या से संबंधित मुद्दे हैं या नहीं, और उसे कम से कम पांच जजों की पीठ को भेजे?
13. क्या अनुच्छेद 142 के तहत राष्ट्रपति/राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों और आदेशों को किसी भी तरह से बदला जा सकता है? क्या अनुच्छेद 142 के तहत कोई विपरीत आदेश या प्रावधान जारी किया जा सकता है?
14. क्या अनुच्छेद 131 के तहत मिले अधिकारों के अलावा, संविधान केंद्र और राज्य सरकार के बीच विवादों का निपटारा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र पर पाबंदी लगाता है?
तमिलनाडु सरकार क्या कह रही है?इस मामले पर टिप्पणी करते हुए ने कहा है, "केंद्र की बीजेपी सरकार सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फ़ैसले को बदलने का प्रयास कर रही है, जिसमें रुकावटें खड़ी करने वाले राज्यपालों के ख़िलाफ़ राज्य की निर्वाचित सरकार के अधिकारों की रक्षा की गई थी."
"मैंने सभी गैर बीजेपी सरकारों और क्षेत्रीय दलों से इस गंभीर क़ानूनी लड़ाई के समय एक होने का आग्रह किया है, ताकि संघीय ढांचे की रक्षा की जा सके और संविधान की मूलभूत संरचना को बचाया जा सके."
इससे पहले भी स्टालिन ने इस मुद्दे पर कई टिप्पणियां की हैं.
है, "मैं 'राष्ट्रपति के नोट' की कड़ी निंदा करता हूं, जो तमिलनाडु के राज्यपाल के मामले और अन्य मामलों में सुप्रीम कोर्ट द्वारा पहले से तय संवैधानिक स्थिति को कमजोर करने का प्रयास करता है."
उन्होंने अपने एक्स पोस्ट में आगे कहा, "यह प्रयास स्पष्ट रूप से दिखाता है कि तमिलनाडु के राज्यपाल ने लोगों के जनादेश को कमजोर करने के लिए बीजेपी के इशारे पर काम किया."
"यह लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित राज्य सरकारों को राज्यपालों, जो केंद्र सरकार के एजेंट के तौर पर काम करते हैं उनके नियंत्रण में लाकर कमजोर करने का एक गंभीर प्रयास है."
मुख्यमंत्री स्टालिन ने अपनी पोस्ट में 3 सवाल उठाए हैं.
पहला, राज्यपालों को फ़ैसला लेने के लिए समय सीमा निर्धारित करने पर कोई आपत्ति क्यों होनी चाहिए?
दूसरा, क्या बीजेपी बिल को मंज़ूरी देने में अनिश्चितकालीन देरी की अनुमति देकर अपने राज्यपालों द्वारा खड़ी 'रुकावटों' को वैध बनाने की कोशिश कर रही है?
तीसरा, क्या केंद्र सरकार गैर-बीजेपी राज्य विधानसभाओं को बंद करना चाहती है?
स्टालिन ने कहा है, "हम अपनी पूरी ताक़त से इस लड़ाई को लड़ेंगे. तमिलनाडु लड़ेगा, तमिलनाडु जीतेगा."
राष्ट्रपति के रेफरेंस का फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट की 5-जजों की बेंच करती है. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या यह रेफरेंस सुप्रीम कोर्ट की तरफ़ से दिए गए गवर्नर के फ़ैसले को पलट सकता है, जिसे 2-जजों की बेंच ने दिया था.
कानूनी विशेषज्ञों के मुताबिक़, यह रेफ़रेंस सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को प्रभावित नहीं करेगा.
संविधान विशेषज्ञ और वरिष्ठ वकील विजयन कहते हैं, "राष्ट्रपति का रेफ़रेंस सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को किसी भी तरीके से प्रभावित नहीं करता.''
बीबीसी से वो कहते हैं, "सुप्रीम कोर्ट ने अनुच्छेद 136 और 142 के तहत फ़ैसला दिया है. राष्ट्रपति की तरफ़ से भेजा गया रेफ़रेंस सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के बारे में अपील या समीक्षा के रूप में नहीं माना जा सकता."
विजयन मानते हैं कि राष्ट्रपति ने केवल एक राय मांगी है. वो कहते हैं "राष्ट्रपति ने केवल एक राय मांगी है. इसलिए, भले ही सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर अपनी राय व्यक्त करे, वह केवल एक राय होगी और यह कोई बाध्यकारी उदाहरण या नया निर्णय नहीं होगा. इसलिए, यह पहले से दिया गया फ़ैसला किसी भी तरीके से प्रभावित नहीं करेगा.''
विजयन कहते हैं कि यह बहुत ही दुर्लभ है कि राष्ट्रपति किसी फ़ैसले पर राय मांगने के लिए नोट भेजते हैं, और सुप्रीम कोर्ट पहले से दिए गए फ़ैसले के खिलाफ नहीं जाएगा.
पिछले कुछ अहम मामलों में राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से कम से कम एक दर्जन रेफ़रेंस भेजे हैं. इनमें राम जन्मभूमि मामला, कावेरी जल विवाद और 2002 के दंगों के बाद गुजरात चुनाव शामिल हैं. इसके अलावा, पहले भी कम से कम दो ऐसे मामले हुए हैं जब सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति के रेफ़रेंस का जवाब नहीं दिया.
पहले, जब सुप्रीम कोर्ट ने कई 2जी लाइसेंस रद्द कर दिए थे और सरकार से उन्हें फिर से नीलामी के जरिए देने को कहा था, तो राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से रेफ़रेंस मांगा था.
1991 के एक फ़ैसले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वह किसी रेफ़रेंस को अपनी ही फ़ैसले के खिलाफ अपील के रूप में नहीं देख सकता. 2012 में 2जी मामले के रेफ़रेंस में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अनुच्छेद 143 के तहत दी गई राय केवल "सलाह" के रूप में होती है, ताकि कानूनी और संवैधानिक पहलुओं को सही तरीके से समझा जा सके। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की बेंच ने यह भी कहा था कि अनुच्छेद 143 के तहत कोर्ट की राय सभी भारतीय अदालतों पर बाध्यकारी होगी.
अखबार द हिंदू से बात करते हुए, दो कानूनी विशेषज्ञ, वरिष्ठ वकील कपिल सिबल और पूर्व जज संजय किशन कौल, इस बात पर अलग-अलग राय रखते थे कि क्या इस रेफ़रेंस का इस्तेमाल फ़ैसले को दरकिनार करने के लिए किया जा सकता है.
सरकार के पास फ़ैसले के खिलाफ रीव्यू पीटीशन दायर करने का विकल्प है. इस मामले में भी सरकार यह विकल्प चुन सकती है.
क्या डीएमके को लग सकता है झटकातमिलनाडु के वरिष्ठ पत्रकार सिकामनी कहते हैं, "हलांकि इसे उन राज्य सरकारों को कमजोर करने के प्रयास के रूप में देखा जाएगा जहां बीजेपी का शासन नहीं है लेकिन इससे डीएमके को झटका नहीं लगेगा."
उन्होंने आगे कहा, "राज्य के विधेयकों से जुड़े मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने आपत्ति जताई थी. उसके जवाब में राष्ट्रपति का नोट जारी किया गया है."
क़रीब एक महीने पहले उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले को लेकर न्यायपालिका के बारे में सख़्त टिप्पणी की थी. उन्होंने कहा था कि, 'अदालतें राष्ट्रपति को आदेश नहीं दे सकतीं.'
उप राष्ट्रपति ने कहा था कि संविधान का अनुच्छेद 142 एक ऐसा परमाणु मिसाइल बन गया है जो लोकतांत्रिक ताक़तों के ख़िलाफ़ न्यायपालिका के पास चौबीसों घंटे मौजूद रहता है.
सिकामनी का कहना है, "डीएमके का आरोप था कि राज्यपाल ने अपना कर्तव्य नहीं निभाया और अपने काम में देरी की. सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फ़ैसले में इसका ज़िक्र किया और कहा कि यह संविधान के अनुच्छेद 200 के ख़िलाफ़ है."
उन्होंने कहा, "राष्ट्रपति द्वारा इस तरह के फ़ैसले के ख़िलाफ़ उठाए गए सवालों को केंद्र सरकार के सवाल माना जाएगा. इसलिए यह डीएमके के लिए एक सकारात्मक साबित होगा जो अपनी राजनीति में राज्य के अधिकारों के महत्व को प्रमुखता देती है."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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