लखनऊ के डालीगंज के रविदास पार्क में पीपल के पेड़ की छांव में बना चबूतरा, सिर्फ़ ईंट-सीमेंट से बनी एक जगह नहीं है. ये एक मंच है, पाठशाला है और ख़ुद पर यक़ीन करने की हिम्मत की ज़मीन भी है.
इस जगह ने ना जाने कितने ही बच्चों को यकीन दिलाया है कि किसी भी पृष्ठभूमि का इंसान एक्टर बन सकता है और सिनेमा में काम करने वाले लोग दूसरी दुनिया से नहीं आते हैं.
लगभग ना के बराबर संसाधनों के साथ एक टीचर बीते 10 सालों से यहां के बच्चों को एक्टिंग और थियेटर के गुर सिखा रहे हैं.
यहां हर शाम दर्जनों बच्चे थियेटर की प्रैक्टिस करते हैं और ये अब तक अलग-अलग विषयों पर आधारित 100 से ज्यादा प्ले कर चुके हैं.
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चबूतरा थियेटर के बच्चे केवल स्टेज प्ले, वेब सिरीज़, विज्ञापन और शॉर्ट फिल्मों तक ही सीमित नहीं रहे बल्कि इन्होंने कई चर्चित फिल्मों जैसे आर्टिकल-15, झलकी, द नॉट: उलझन, शहर, लव हैकर और विक्रम वेदा में काम कर खूब सुर्खियाँ बटोरी हैं.
अनुभव सिन्हा की फिल्म आर्टिकल-15 में ममता का किरदार निभाने वाली शिखा वाल्मीकि इसी चबूतरा थियेटर की हैं. वो यहाँ बीते 8-10 साल से एक्टिंग सीख रही हैं.
शिखा आर्टिकल-15 मूवी में काम करने का अनुभव साझा करती हैं, "मैं छोटी जाति से आती हूं. ये फिल्म भी कास्ट आधारित थी इसलिए मेरा जुड़ाव इससे और बढ़ा. जब आयुष्मान खुराना सर के साथ काम किया तब ऐसा लग रहा था जैसे ये सब सपने में हो रहा है."
"फिल्म में काम करने के बाद बस्ती में हमारे परिवार की इज्जत बढ़ गयी है. हमारे घर में लाइट नहीं थी. इस फिल्म में काम करके जो पैसे मिले उसी से मैंने अपने घर में लाइट लगवाई."
ये बताते हुए शिखा के चेहरे पर चमक थी. शिखा लखनऊ में पहली बार मंच पर उतरने का अनुभव साझा करते हुए कहती हैं, "मैं पहले सोचती थी कि मैं वाल्मीकि हूँ, कुछ नहीं कर पाऊंगी. लेकिन जब चबूतरा थियेटर में सीखने आयी तो थोड़ी हिम्मत बढ़ी. जब पहली बार स्टेज पर काम किया तब बहुत लोग हमारा प्ले देखने आये. भीड़ ने उस दिन खूब तालियां बजाई. ये सब देखकर मैं रो पड़ी."
'मम्मी क्या मैं मर जाऊंगी'शिखा पहले प्ले के अनुभव को याद करते हुए आज भी भावुक हो गईं.
वो कहती हैं, "उस वक़्त मैं भूल गई थी कि मैं किस जाति से हूं, किस बस्ती से आयी हूं. वहां दर्शकों को मेरी जाति, मेरी ग़रीबी, मेरी बस्ती से कोई फर्क नहीं पड़ा. मुझे बहुत अच्छा लगा. उसी दिन ठान लिया था कि यही वो जगह है जो मुझे सम्मान दिला सकती है."
शिखा सामाजिक विषयों पर आधारित स्टेज प्ले करती हैं. वो अपने आसपास जो देखती हैं, महसूस करती हैं उसे लिखती हैं और फिर उस पर प्ले करती हैं. शिखा का कहना है कि इन नाटकों से समाज पर प्रभाव भी पड़ा है.
शिखा ने बताया कि उन्होंने शराब पर एक नाटक किया था जिसे उनके घर के लोग भी देखने आए थे और उनके घर में भी तब लोग बहुत शराब पीते थे. वो बताती हैं कि नाटक के एक दृश्य में वो बहुत बीमार रहती हैं और उनके किरदार का डायलॉग है, "मम्मी क्या मै मर जाऊंगी? पापा सब पैसों की शराब पी लेंगे? प्लीज़ मुझे बचा लीजिए मुझे अभी जीना है."
शिखा का कहना है कि इस नाटक का असर यह हुआ कि उनके घर के लोगों ने शराब पीना कम कर दिया. शिखा के पिता छोटेलाल वाल्मीकि, जो कि पेशे से एक कलाकार हैं, वो ढोलक बजाते हैं. उससे जो कमाते हैं घर का खर्चा चलता है. वो अपने जमाने में होने वाले छुआछूत की कई परत खोलते हैं.

जहां चबूतरा थियेटर चल रहा हैं वहां सालों पहले वाल्मीकि समुदाय के साथ किस तरह का भेदभाव होता था इस बारे में छोटेलाल बताते हैं, "हमने बहुत झेला है. 90 के पहले सफाई का काम करते थे. कूड़ा उठाते थे. पहले गाँव जाते थे तो लोग जान जाते थे कि ये वाल्मीकि है, मेहतर है तो पानी भी नहीं देते थे. और अगर देते भी थे तो दूर से पानी देते थे कि चुल्लू लगाकर पी लीजिये. नलों से हम लोग पानी नहीं पी पाते थे. अब वो सब कम हो गया है."
शिखा की पहचान अब उनके पिता के लिए भी एक उम्मीद है. उम्मीद इस बात की है कि अब आने वाले वक़्त में समाज उन्हें उनकी जाति से नहीं बल्कि उनकी काबिलियत से पहचानेगा.
शिखा की तरह नीलिमा के मन में भी जाति व्यवस्था को लेकर गुस्सा है. वो इससे बाहर निकलकर अपनी एक विशेष पहचान बनाना चाहती हैं.
'छुआछूत तो पहले से होता आ रहा है'नीलिमा बीते आठ सालों से इसी चबूतरे के आसपास पीपल के पेड़ की छांव में एक्टिंग करना सीख रही हैं. पीपल की मजबूत जड़ों की तरह नीलिमा की तरह यहाँ दर्जनों बच्चों के एक्टिंग सीखने के इरादे मजबूत हैं और हौसले बुलंद.
नीलिमा ने चर्चित शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री 'पीलीभीत' में काम किया है. इन्होने लव हैकर मूवी में भी काम किया है, जो अभी रिलीज नहीं हुई है.
नीलिमा बताती हैं, "मुझे अवॉर्ड मिले हैं, इज्जत मिली है. लेकिन जिन्होंने ये सब दिया है उन्हें मेरी कास्ट नहीं पता है. पहले मेरी दादी स्वीपर का काम करती थीं. छुआछूत तो पहले से होता आ रहा है. जो लोअर कास्ट के लोग होते हैं, उन्हें समाज में इज्जत नहीं मिलती और फ्रीडम (आज़ादी) भी नहीं."
इन बच्चों का यहां तक पहुंचने का सफर विशेष इसलिए भी है क्योंकि इनमें से ज्यादातर बच्चे दलित और अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. छुआछूत की कसक इस नई पीढ़ी को भी है.
नीलिमा कहती हैं, "डाउन कास्ट के लोगों को समाज में सम्मान मिले इसके लिए हर कोई काम नहीं कर सकता है. लेकिन देवा सर ने किया."
नीलिमा जिन देवा सर का नाम ले रही हैं, उनका पूरा नाम महेश चन्द्र देवा है. उन्होंने साल 2014 से लखनऊ के रविदास पार्क डालीगंज में पीपल के पेड़ की छाँव में चबूतरा थियेटर की शुरुआत की. पेड़ की छाँव में बना एक चबूतरा ही इन बच्चों की सिगिंग-डांसिंग और एक्टिंग क्लास है."
इसके अलावा यहां फाइन आर्ट्स और स्क्रिप्ट राइटिंग की भी क्लास होती है. लेकिन इन स्किल क्लासेस के अलावा यहां इन बच्चों को समाज में उठने-बैठने, अपनी बात को सही तरीक़े से पेश करने की कला भी सिखाई जाती है.

चबूतरा थियेटर के फाउंडर महेश चन्द्र देवा ही वो टीचर हैं, रंगकर्मी हैं जिन्होंने इन बच्चों को उड़ने के लिए आसमान दिया. शिखा, नीलिमा, खुशी, सोनाली, स्नेहा, अमन, आर्यन और लकी जैसे दर्जनों बच्चे रोज शाम पीपल के पेड़ के नीचे रंगकर्मी बनने का अभ्यास करते हैं. ज्यादातर बच्चे दलित और अल्पसंख्यक समुदाय से हैं.
इन बच्चों को सालों से थियेटर सिखाने वाले महेश चन्द्र देवा बताते हैं, "मैं खुद गरीबी से निकला हूँ. इस कारण बच्चों की मनोदशा समझता हूँ. मैं इनके साथ बहुत मेहनत करता हूँ. वाल्मीकि समुदाय के बच्चों को आर्ट और कल्चर सांस्कृतिक विरासत में मिले हैं. इन बच्चों में बहुत काबिलियत है. तमाम बच्चे जो बहुत अच्छे थे लेकिन शुरुआत में सिर्फ हाँ या न में ही उत्तर देते थे. लेकिन आज ऐसा नहीं है."
उन्होंने आगे कहा, "इन बच्चों ने फिल्मों में, विज्ञापनों में, वेब सिरीज़ और शॉर्ट डॉक्यूमेंट्री में बहुत काम किया है. इन बच्चों ने कम समय में लोकप्रियता हासिल की है. पहले यहाँ के बच्चों में पढ़ाई का उतना क्रेज नहीं था लेकिन थियेटर में जुड़ने के बाद इनमें पढ़ने की शुरुआत हो गयी है."
इन बच्चों को स्टेज प्ले, फिल्मों में, विज्ञापनों में काम करने में जो भी राशि मिलती है उसे ये घर और अपनी पढ़ाई पर खर्च करते हैं.
मोहम्मद अमन इस चबूतरा थियेटर में करीब 10 साल से जुड़े हैं. इन्होने बोमन ईरानी के साथ झलकी, सरकार की सेवा, भौकाल फिल्म में भी काम किया है. वह एक्टिंग के साथ-साथ नाटकों के डायरेक्शन में भी हाथ आजमा रहे हैं.
ये भी पढ़ें-अमन की तरह खुशी ने भी कई प्ले किए हैं. इन्होने दि नॉट उलझन मूवी में काम किया है. खुशी की फोटो जापान के फिल्म फेस्टिबल में जब बड़े-बड़े पोस्टरों में लगी तो इनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा.
खुशी कहती हैं, "मुझे एक्टिंग बहुत पसंद है. मैंने कई प्ले किए हैं, नुक्कड़ नाटक भी करती हूं. जब नाटक करती हूं तो मैं ये सोचती हूं कि मैं इस रोल को अच्छे से निभा पाऊं. मै गरीब हूं. हमारी संस्था गरीब बच्चों के लिए ही है. दि नॉट उलझन मूवी में काम किया. ये मेरी पहली मूवी है."
इन बच्चों के लिए यहाँ तक का सफर करना इतना आसान नहीं था. घर पर रोकटोक थी, दलित जाति थी, मलिन बस्ती थी और एक ताना लड़कियों के साथ यह भी जुड़ा था कि लड़कियां एक्टिंग नहीं सीखतीं. इन सबके बावजूद महेश चन्द्र देवा ने इन बच्चों को एक विशेष पहचान दिलाई.
सोनाली इस ग्रुप की पुरानी साथी हैं. सामाजिक विषयों पर नाटक लिखती हैं और डायरेक्ट भी करती हैं. इन्होंने कई सारे नाटक को मिलाकर एक किताब भी लिखी है.
सोनाली शुरुआती सफर के बारे में बताती हैं, "चबूतरा का सफर आसान नहीं था. फैमिली सपोर्ट नहीं था. सर के सपोर्ट से ही यहाँ तक पहुंचे हैं. हमारा माहौल मलिन बस्ती का है. एक्टिंग को गलत मानते हैं. कहते हैं कि ये एक्टिंग में जाएंगी? जैसे-जैसे हमारा नाम हुआ. कई अखबारों में हमारा इंटरव्यू छपा तो फिर घर से सपोर्ट मिलने लगा. हमने जो आसपास देखा उसे नाटक में लिखा."

यहां पर कई ऐसे कलाकार हैं जो अपनी कला से आजीविका का रास्ता भी निकालते हैं. उनके सामने भी कई तरह की मुश्किलें होती हैं.
यहां एक्टिंग में हाथ आजमा रहे लकी कहते हैं, "पहले जब छोटे थे तब काम ज्यादा मिलता था अब बड़े हो गये तो काम नहीं मिलता है."
चबूतरा थियेटर की एक सच्चाई यह भी है कि ये अकेले इन बच्चों को उनकी मंज़िल तक नहीं पहुंचा सकते. क्योंकि इनके पास संसाधनों का अभाव है. इनका रास्ता लंबा है, इनके सपने बड़े हैं तो मुश्किलें भी कई हैं.
इन मुश्किलों के बाद नीलिमा को इस बात की तसल्ली भी है कि अब इनकी पहचान इनकी जाति से नहीं है.
वो कहती हैं, "कहते तो सब लोग हैं कि बराबरी आ गयी है लेकिन बस्ती में कोई हमारे साथ बैठता नहीं है. देवा सर ने हम लोगों को समझा और हमारे साथ बैठे. केवल बैठे ही नहीं उन्होंने हमें इस लायक भी बनाया कि आज हमारी एक पहचान बन गयी है."
यहां सीखने आने वाले बच्चों से कोई फ़ीस नहीं ली जाती है. जो चाहे आ सकता है सीख सकता है.
महेश चन्द्र देवा ने कहा, "हमारा मकसद बच्चों को सिर्फ फिल्मों में लाना नहीं था बल्कि इन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ना है. समाज में इनके स्थापित होने की जो लड़ाई है वो एक बड़ी लड़ाई है जिसको हम इन बच्चों के साथ लड़ रहे हैं."
बीबीसी के लिए कलेक्टिव न्यूज़रूम की ओर से प्रकाशित
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